प्रभा खेतान की कविता : स्त्री की पुकार


प्रभा खेतान के गद्य साहित्य पर जितनी अधिक चर्चा हुई है उतनी पद्य साहित्य पर नहीं। प्रभा खेतान का लिखना कविता से शुरू हुआ और उल्लेखनीय है कि उनके कविता संग्रह बेहतर भी हैं। उनके कुछ कविता संग्रह विषय चुनाव एवं विमर्श की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। प्रभा की कविता नारी अस्मिता के लिए नींव का पत्थर साबित होती हैं। नारी का सशक्त रूप उनके पूरे साहित्य में मौजूद है। 
प्रभा की नारी अपने अस्तित्व के लिए लड़ती नजर आती है। पितृसत्ता को ललकारती हुई वह अपनी जड़ता को तोड़ती है। प्रभा खेतान के ‘कृष्णधर्मा मैं’ तथा ‘अहल्या’ दोनों कविता संग्रह नारी विमर्श की दृष्टि से हिंदी साहित्य की थाती हैं। 
जिस स्थावर व्यवस्था ने सदियों से स्त्री को जकड़े रखा है, उस व्यवस्था की प्राणहन्ता बेड़ियों को तोड़ने के प्रयास ‘कृष्णधर्मा मैं’ की स्त्री करती है। इस कविता में स्त्री पुरुष के व्यक्ति रूप को स्वीकारती है तो स्वयं के व्यक्ति रूप को भी स्थापित करती है। वह अपनी सृजन शक्ति को पहचानती है- ‘‘अपनी पहचान/मैं स्वयं हूं/अपना आंतर/अपने एकल को पहचानती हूं मैं।’’ 
सृष्टि का निर्माण तो स्त्री-पुरुष मिलकर करते हैं। फिर स्त्री को इतिहास की अंधेरी खोहों में क्यों धकेल दिया जाता है? पितृसत्ता के मक्कड़जाल ने स्त्री के अवदान को क्यों नकारा? व्यवस्था ने प्रखर बुद्धि से भयभीत होकर ज्ञान के कपाट क्यों बंद कर दिए? वह जानती है पुरुष अकेला ही इतिहास के पन्नों में दर्ज है। परंतु वह यहां तक कैसे पहुंचा, यह भी जानती है। इतिहास के इन रक्त-रंजित अध्यायों में स्त्री की ही बलि दी गई है। पितृसत्ता की कंदराओं से बाहर आती हुई स्त्री सवाल करती है- ‘‘इतिहास तो हमारे साझे का जगत है कृष्ण/मैं तुमसे अलग कहां?’’ 
समाज के ताने-बाने ने कितने ही रूपों में स्त्री को छला है। कितने ही आवरणों से घेर रखा है। ‘कृष्ण धर्मा मैं’ की स्त्री अपने वजूद को पहचानती है- ‘‘स्वीकारती हूं/आज अपने होने का सच/अंधेरे जगत में जैसी भी हूं/धूप की चाह के साथ हूं प्रभु!/निरावरण है यह अस्तित्व/मुखौटों के व्यामोह से मुक्त।’’ 
प्रभा खेतान की स्त्री अधिक संवेदनशील है। वह मिट्टी का लोंदा नहीं, जैसे चाहा उस आकार में ढाल दिया। वह अपने आत्म को पहचानती है- ‘‘क्या करूं अपने इस अहंकार का?/क्या करूं अपनी इस आत्मनिष्ठा का?/कहां विसर्जित कर दूं/तुम्हारी रची इस व्यवस्था में/बार-बार सिर उठाते/पहचान बनाने के लिए/आकुल अहं को?’’  स्त्री की ऐसी सभी इच्छाओं पर पहरा बैठाया जाएगा। उसे समझाया जाएगा। तुम बेटी हो, बहन हो, पत्नी हो, मां हो, तुम्हारे लिए ऐसी इच्छाएं उचित नहीं। तुम ऐसी कामनाएं करोगी तो हमारी संस्कृति का क्या होगा? समाज का क्या होगा? हमारे बच्चों को संस्कारित कौन करेगा? लेकिन प्रभा खेतान की स्त्री के पास इन सवालों का जवाब है। वह झुकने वाली नहीं- ‘‘न वरण करूंगी दैन्य/न वरण करूंगी पलायन/पहुंचना है मुझे भी/तुम्हारी ऊंचाइयों तक/चूमना है मुझे भी तुम्हारे धर्म का शिखर।’’ 
‘अहल्या’ में प्रभा खेतान ने युग-युग से जड़वत बनी स्त्री को जगाने का प्रयास किया है। बचपन से एक कहानी सुनते आए हैं- गौत्तम ऋषि की पत्नी थी अहल्या। ऋषि ने शाप देकर अपनी ही पत्नी को पत्थर बना दिया। और फिर आए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, जिनकी ठोकर से अहल्या जीवित हो उठी। इस कहानी की परछाई में जब प्रभा खेतान की ‘अहल्या’ सामने आती है तो एक कुचक्र पाठक के समझ में आता है- ‘‘भोक्ता इंद्र/विधायक गौत्तम/मुक्ति-दाता राम।’’ 
स्त्री कब तक फंसी रहेगी इस मायावी जाल में? कब तक निर्भर करेगी उधार मिले जीवन पर? उसे अपना उद्धारक खुद बनना होगा। अपने रास्ते स्वयं ही निर्मित करने होंगे। पितृसत्ता के बीहड़ों से निकलकर नई बस्तियों का निर्माण करना होगा। समता के बीज बोने होंगे। प्यार के पुष्प खिलाने होंगे। इस कलंकित इतिहास को पुनर्सृजित करना होगा। इसीलिए प्रभा खेतान का आत्म पत्थर हुई स्त्री को पुकारता है- ‘‘उठो! मेरे साथ/मेरी बहन!/छोड़ दो/किसी और से मिली मुक्ति का मोह!/तोड़ दो शापग्रस्तता की कारा/तुम अपना उत्तर स्वयं हो अहल्या!/ग्रहण करो,/वरण की स्वतंत्रता।’’ 
ऐसा ही नहीं कि स्त्री को एक बार हाथ-पैर मारते ही उसे हक मिल जाएं। उसे संघर्षों के दरिया से गुजरना होगा। ठोकरें लगेगीं। बार-बार गिरकर भी उठना होगा। विश्वास से लबरेज होकर चलना होगा। स्त्री के आत्मविश्वास को जगाती प्रभा खेतान- ‘‘इतना तो मानोगी, अहल्या!/निःशेष नहीं होती सम्भावना/ऊसर में भी/बीज उग आने की/फिर क्यों/मौन तुम हो गई/आत्मलीन?’’ 
पुराना सबकुछ भूलकर वर्तमान को भोगने के पक्ष में प्रभा खेतान की स्त्री नहीं है। वह इन यंत्रणाओं को याद रखना चाहती है। प्रभा खेतान घबराई हुई त्रस्त स्त्री को सांत्वना देती है। कहती हैं कि उठो, मैं तुम्हारे साथ हूं। अतीत से निकलकर वर्तमान को पुकारो- ‘‘मैं आई हूं तुम्हारे/पथराए होंठों को आवाज देने/तुम्हारे पास/डाल देने अपना लंगर/खोल दो, चट्टानों की शिरा-शिरा/आवाज दो,/यंत्रणा-दग्ध यादों को!’’ 
स्त्री ने मौन रहकर सब सहा। आज भी वह एक हद तक मौन ही है। दस प्रतिशत जागरूकता को हम जगना नहीं कह सकते। यदि वह बोलेगी, सवाल करेगी तो व्यवस्था का ध्यान जरूर जाएगा। यदि अहल्या उस समय सवाल करती कि मेरा कसूर क्या है, तो शायद गौत्तम सोचने पर विवश होता। मगर अहल्या हो या माधवी या फिर सीता, सबने मौन साध लिया और उसका परिणाम- पत्थर में ढलती हुई स्त्री। पुरुष की उस नियती को चुपचाप धारण करने वाली स्त्री से प्रभा खेतान सवाल करती है- ‘‘ओ, प्रकृति के नैरंतर्य की/आत्र्त पुकार, अहल्या!/अंतहीन तुम्हारी करुणा/वत्सला तुम/जननी! शाश्वत प्रसविनी!!/गर्भ में भ्रूण का यों/पथरा जाना/कैसे सहा तुमने?’’ 
‘अहल्या’ की कवयित्री का हृदय उद्वेलित हो उठता है। वह स्त्री की अंतहीन यातनाओं से रूबरू होना चाहती है। स्त्री के रक्तरंजित हृदय की धमनियों से दुःख गाथा सुनना चाहती है। इतना ही नहीं, कवयित्री इन सबके बीच स्त्री को अपनी स्थितिग्रस्तता से बाहर निकलने के लिए आह्वान करती है। ‘कृष्ण धर्मा मैं’ की स्त्री के स्वर में भी नाद है। पीड़ा के बीच विद्रोह के स्वर हैं।
प्रभा खेतान की स्त्री करवट बदलती दिखाई दे रही है। उसकी मांसपेशियों में जमा हुआ पानी लालिमायुक्त बनने लगा है। वह अपनी जमीन को टटोल रही है। आगे बढ़ने के नए मार्ग खोज रही है। उसे विश्वास है कि नई सदी का सूर्य उसके लिए नई रोशनी लाएगा। तभी तो वह आत्मविश्वास से लबरेज होकर अहल्या से कहती है- ‘‘अब/जब तुम/आंख खोलोगी अहल्या!/सच मानो, मेरी बहन!/उसी वक्त खुलकर/खिलने लगेगीं/नई संस्कृति की पंखुड़ियां।’’  

काळी रात अजै ढळी नीं

जागती जोत, मासिक, अगस्त, 2013



 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


सदियां सूं मिनख सिरजण में लाग्यौ थकौ है। वीं में साहित्य सिरजण ई अेक हिस्सौ रैयौ। साहित्य सूं आखी मिनखाजूंण रै ग्यांन में बधेपौ हुवतौ रैयौ है। किणी भासा अर छेतर विसेस में रचेड़ै साहित्य सूं वठै री संस्कृति, रीति-रिवाज, खानपान, गैणां-गाठां, गाभा-लत्ता अर वठै रै मिनख री चेतना रौ खुलासौ हुवै। किणी प्रांतीय भासा में रचेड़ौ साहित्य वठै रै छेतर अर मिनख सारू बेसी महतावू हुवै। मिनख नै आपरी जड़ां सूं जोड़नै अर वींरी चेतना नै प्रगतिशील बणावणै रा दोनूं कांम साहित्य अेकै साथै करै। जैविक संबंधां रै साथै-साथै सामाजिक संरचना नै समझणै सारू साहित्य री महतावू भूमिका रैयी है। सामाजिक संरचना रै तांणै-बांणै सूं साहित्य प्रभावित रैयौ अर करîौ ई। मिनख साहित्य सिरजती वेळा अणजांणै में खुद रौ ई सिरजण करै अर आवणवाळी पीढियां सारू मारग बणावतौ चालै। पण औ मारग सै सारू अेकसार नीं हुया करै। किणी नै इणमें जीवण रौ सार मिलै तौ किणी नै जीवण री विसंगतियां वाळी अणमिट परम्परा।
साहित्य चायै किणी भासा, देस कै छेतर रौ हुवै, वीं मांय तात्कालिक थितियां रौ बणाव हुया करै। साहित्य फगत वौ ई नीं मानीजै जकौ लिख्यौ थकौ है। लिपि ग्यांन सूं अणजांण अर अणपढ मानखै रौ वौ ग्यांन जकौ मौखिक परम्परा सूं चाल्यौ आवै, साहित्य ई बाजै। चायै वौ बात, गीत, कै कैबतां रै मारफत रमतौ हुवै। आखौ साहित्य मिनख रै भावां नै परगटणै रौ जरियौ हुवै। मिनख हरमेस वौ ई परगट्यौ जकौ वीं भोग्यौ, जीयौ, देख्यौ अर सुण्यौ। कीं काल्पनिक मसालौ ई वीं मांय मिल्योड़ौ हुय सकै पण कोरी कल्पना री अभिव्यक्ति नीं हुय सकै। पछै ई कोरी कल्पनां रौ सिरजण ई केई ठौड़ निगै आ ई जावै। चायै वा परीलोक री विगत हुवै कै देवलोक री। 
मिनख नीं ठाह कद आपरै टूटतै धीजै नै साधणै सारू लोकां रौ सिरजण करîौ। अेक जाळ गूंथ्यौ अर वीं जाळ में खुद नै सुरक्षित महसूस करîौ। पण होळै-होळै वौ ई जाळ मिनख रै मन में भय भरतौ गयौ अर वींनै न्यारै-न्यारै खांचां में बांटतौ रैयौ। साहित्य मांय मिनख रौ औ भय नवी पैंतराबाजी ल्यायौ। इणी कारणै मिनख री सहज अभिव्यक्ति रौ माध्यम जकौ साहित्य हौ वीं में ई धड़ाबंदी हुवणै लागगी।
मानखै रै जिण धड़ै नै जीवण रा साधन सोरपाई सूं मिलै हा, वीं आपरी पीढियां रौ कब्जौ साचै करणै सारू साहित्य में न्यारा खांचा बणाया। मिनख रा न्यारा-न्यारा करम-धरम थरप्या। ऊंच-नीच बणाई अर वीं मांय काल्पनिक लोक रौ भय भरîौ। जिण मिनख नै बैठनै सोचणै री फुरसत नीं ही, वीं समाज अर साहित्य रै इण जाळ नै अंगेज लीन्हौ। मिनख बरगां मांय बंटतौ रैयौ, जात-धरम, ऊंच-नीच, अठै तांणी कै लिंग-भेद ई मिनख रै भय री ऊपज है। व्यक्तिगत भय सूं जामेड़ी सामाजिक खाई आजलग आखी दुनिया मांय बणी थकी है। आ खाई कदै बेसी ऊंडी हुवै तौ कदै कीं भर ई जावै। पण स्यात् सूंवी जमीन आज तांणी कठैई नीं बणी। चायै वा दुनिया री किसी ई कूंट क्यंू नीं हुवै। अेक मिनख रौ हक दूजै मिनख री झोळी में घलतौ रैयौ है। साहित्य इण हक नै बचावणै सारू जोर खायौ तौ इण हक नै चबावणै खातर ई जोर लगायौ। देववाणी में बोलणवाळै साहित्य मिनख रै अेक हिस्सै नै अछूत साबत करîौ। साहित्य देववाणी में हौ, देवलोक सूं अवतरîौ हौ, इण खातर वौ सगळां नै मंजूर हौ। भोळी जनता उण माथै थोड़ौ-बहोत विचार करîां बिनां ई आज तांणी वींरी लीक-लीक चालै। दुनिया री सगळी भासावां अर छेतर मांय मिनख नै गूंगौ बणायां राखणवाळौ अैड़ौ साहित्य सिरजीज्यौ पण आज वीं माथै फेरूं सोचीजण लागग्यौ। विग्यांन री नवी खोजां रै साथै-साथै मिनख सामाजिक संरचना रै वीं जाळ नै समझणै लागग्यौ अर वीं माथै नवा-नवा सवाल खड़îा करणै लागग्यौ। 
जद आखी दुनिया री भासावां रै साहित्य माथै फेरूं चिंतीज सकै तौ राजस्थानी रौ अखूट भंडार वींसूं बंचेड़ौ किंयां रैय सकै? देववाणी मानीजणवाळी संस्कृत रै खासी नैड़ै ऊभी राजस्थानी में आजलग दुनिया री बीजी भासावां सूं बेसी परम्परागत लीक माथै चालीजै। सामंती कथा, पात्र, चरित्र, परिवेश आज बीजी भासावां रै साहित्य में नामलेवणजोग ई नीं रैया है। पण वठैई राजस्थानी में सामंती सोच लगौलग चालै। जद तांणी इण पितृसत्तात्मक सामंती सोच सूं ऊपर नीं उठ्यौ जासी तद तांणी राजस्थानी साहित्य बीजी भासावां रै साहित्य बरौबर खड़îौ नीं हुय सकसी। नवी सोच नै अंगेजीजणौ कीं दौरौ हुवै अर बगत ई लागै पण वींरौ परिणाम चोखौ हुवै। 
आदिकाल अर मध्यकाल में राजस्थानी रौ साहित्य बीजी भासावां सूं बेसी लिख्यौ थकौ है। आज ई राजस्थानी में खासौ लिखीजै। पण किणी ई भासा रै साहित्य में फगत आ बात मायनौ नीं राखै कै कित्तौ लिखीजै। कित्तै रै साथै आ ई देखणी जरूरी हुवै कै के लिखीजै। राजस्थानी रै आदिकाल में अेक-दो रचनावां नै छोडनै बाकी सगळौ साहित्य सामंती सोच रै नैड़ै है। कीं धार्मिक साहित्य ई है, जकै में ई लगैटगै सामंती सोच रा दरसाव हुवै। मध्यकाल में कीं संत साहित्य है, जकै में आमजन आयौ है। मीरां रौ साहित्य ई संत साहित्य साथै ऊभौ है। पण बाकी लगैटगै सगळै साहित्य में सामंती मानसिकता री अभिव्यक्ति हुई है। घणी मोटी-मोटी पोथ्यां लिखीजी पण वां में अंहकारी राजावां रा जुद्ध, जुद्धां में भिड़ती सेना, कटता-पड़ता रुंड-मुंड, खून सूं भीजती धरती, हाथी-घोड़ां सूं चींथीजती बापड़ी जनता, सती हुवती धीवडि़यां, राजतखतां रा बदळता धणी अर वांरी कीरत बखाणता कवि। राजमहलां में रचीजता चक्रव्यूहां बिचाळै भोग-विलास में डूब्या सामंत अर दास-दासियां सूं भरîा दरबारां में हुवता व्यभिचार। नारी रै वस्तुरूपी फुटरापै रा चितरांम खेंचता कवियां री कलम कदै थमी नीं। भोग में मदीजेड़ा राजावां री भूख ई कदै नीं मिटी। 
अेक रचनाकार रौ के औ ई धरम बणै कै फगत चिलकती चीज नै उठावै अर संभाळनै राखै। अंधेरै में दबेड़ी-चींथेजेड़ी रुळती चीज नै के खुद रै हाल माथै छोड़ देवै? चिलकती चीज तौ सीसौ ई हुय सकै अर संभाळणियै रै गड ई सकै। अंधेरै में रुळती चीज मोती ई हुय सकै जकौ संभाळणियै नै अणूतौ सुख देय सकै। अठै रै रचनाकार चिलकतै ऊजास में बेसी हाथ घाल्यौ अर अंधेरी झूंपड़ी कांनी ध्यांन नीं दीन्हौ। वींरी भरपाई अजै तांणी नीं हुय सकी।
राजस्थानी में दलित-दमित, शोषित-वंचित अजै तांणी हांसियै माथै फेंकीजेड़ा है। साहित्य रै बीचै ऊभौ पितृसत्तात्मक सामंती बणाव अर अेक कूंणै कांनी सरकाइजेड़ी सतर प्रतिशत मिनखाजूंण। इण वंचित मिनखाजूंण नै अंवेरनै साहित्य रै पानां में ल्यावणौ जरूरी है। नीं तौ असंतुलन रौ विस्फोट अेक दिन घमरोळ मचा देयसी अर वीं दिन केंद्र में खड़îा मुट्ठी-अेक लोगां सूं विस्फोट रौ धमाकौ सहण नीं करीजसी।
समूचै वंचित तबकै माथै विचार करणौ अबखौ अर खासौ बडाळ कांम, पण हुवणजोग है। अैड़ै कांम में अेकल मिनख रै हाथपग मारणै सूं कोई सार नीं निसरसी। इणी खातर सगळै विसयां नै अेक साथै अंवेरणै री आफळ ओपती नीं मानीजसी। अेक लुगाई हुवणै रै नातै वींरौ पैलौ फरज बणै कै वा लुगाई रा पगलिया मंडावणै रा जतन साहित्य में करै। अेक दलित रौ फरज बणै कै वौ पैलपोत आपरी ओळखांण थरपणै री मनसा परगटै। जद खुद री पिछांण बण जासी तद दूजै नै पिछाणनै री खिमता मत्तौमत्त जांम जासी। 
बिंयां तौ सै सूं बेसी शोषण तौ लुगाई रौ ई हुयौ है। चायै वौ कुणसौ ई जुग रैयौ हुवै। कुणसौ ई धरम-जात-समाज कै खेतर-देस हुवै। लुगाई आपरी जीवण-जातरा में हरमेस ठगीजी। बीजा वंचित तबका तौ आपरै शोषण नै समझै पण लुगाई तौ अजै तांणी वींनै समझ्यौ ई नीं। लुगाई तौ अजै ई मांनै कै वींरौ जिम्मौ फगत मरद रौ हुकम मानणौ हुवै। मरद री सोरपाई सारू सगळा जतन करणां धरम हुवै।
राजस्थानी साहित्य में जे नारी रै पगलियां री ढंूढ करां तौ सै सूं पैलां आदू साहित्य री खोज करणी ठीक रैयसी। विद्वानां रै मुताबिक राजस्थानी रौ आदूकाल लगैटगै 11वीं सदी सूं मान्यौ जावै। इण काल में खास रूप सूं जैन कवियां अर चारण कवियां रौ साहित्य मिलै। साथै ई लौकिक परम्परा रौ साहित्य ई मोकळौ मिलै। जैन कवियां खासकर रास अर फागु रच्या। 
जैन कवियां रौ उद्देश्य धरम रौ प्रचार रैयौ। वां खासकर जैन धरम रै नांमी पुरखां री बिड़द बखावणै सारू ई रचाव करîौ। जे कठैई आमजन आयौ है तौ वौ नांमी पुरख री महानता साबत करणै सारू ई आयौ है। स्त्री रौ महतब तौ जैन काव्य में बिंयां ई कम रैयौ, क्यूंकै स्त्री री संगत कै दरसण मात्र सूं सिद्ध पुरख रै मोक्ष रौ मारग अवरुद्ध हुय सकै। फेर ई केई पोथ्यां में स्त्री रौ आवणौ जरूरी हौ। पुरख री हौड में वींनै ओछी साबत करणै सारू। ‘चंदनबाल रास’ में कवि आसगु भगवान महावीर रै प्रभाव सूं चंदनबाला नै फगत सती-सावतरी घोषित करी है। ‘जम्बूस्वामीरास’ कवि धर्म री रचना है। इण मांय जम्बूस्वामी ब्याव री पैली रातनै आपरी ‘आठ’ राणियां नै ‘प्रतिबोध’ दीन्हौ। उण महान पुरख आठ स्त्रियां रै साथै खेल करîौ अर राजस्थान रा विद्वान ई कथा नै बडी मार्मिक बताई। जम्बूस्वामी री महानता रा बखांण करै, ब्याव री रात भोग री ठौड़ वौ आपरी पत्नियां नै ग्यांन बांट्यौ। वठै औ नीं सोचीजौ कै वां पत्नियां रौ मन कांईं चावै हौ। जीवण कर्मशील कै कोरौ उपदेसू? जम्बूस्वामी अठै उपदेश देयनै खुद आजाद हुयग्या अर आठ स्त्रियां नै पितृसत्ता री बेडि़यां में बांधग्या। इणी भांत री रचना है- ‘नेमिनाथ बारहमासा’। उग्रसेन री बेटी राजमती सूं ब्याव करणै नेमिनाथ जावै अर उग्रसेन रै महलां में बंदी पसु-पंखेरुवां रौ किरळावणौ सुणनै साधु बण जावै। पसुबलि रौ विरोध करणै सारू नेमिनाथ संन्यास धारण कर लेवै पण पसुबलि रौ दैहिक रूप सूं विरोध नीं करै। वांरै जीव-जिनावरां रौ किराळवणौ समझ में आग्यौ पण राजमती रै हिड़दै मांय पळती पीड़ रौ हाकौ नीं सुणीजौ। नेमिनाथ विरक्त हुय जावै। दाझती राजमती साध्वी बण जावै। 
विरक्त नेमिनाथ री महानता बखाणीजती वेळा कवि राजमती री वीं पीड़ नै भूलग्यौ जकी ब्याव री वेदी सूं साध्वी बणनै तांणी वींरै स्वाभिमांन नै चालणीबेझ करती रैयी। जे बारात लेयनै आयेड़ौ वर पाछौ मुड़ जावै तौ अरमानां री डोली सजायां बैठी नारी माथै कांई बीतै, आ बात हरेक मां-बाप जांणै अर मैसूसै। अठै राजमती रौ टूटतौ खुदूसम्मान अर लाचारी रौ साध्वी मारग पाठक नै झकझोरनै जगावै।
‘राजशेखरसूरी’ रचना ‘नेमिनाथ फागु’ में राजमती रै सिणगार रौ खासै विस्तार सूं बखांण करîौ पण पूरै फागु मांय राजमती रै व्यक्तित्व रौ बणाव कठैई नीं उभरîौ। आं रचनावां नै पढनै इंयां लागै जांणै नारी तौ खाली डील हुवै। व्यक्तित्व नांम री तौ कोई चीज सूं वींरौ दूर-दूर तांणी रौ नातौ ई नीं हुवै।
जैन कवियां रौ उद्देश्य धरम प्रचार हौ अर इण वास्तै वांरै कथ्य नै दोख नीं दीरीजै। पण लौकिक विसयां नै रचना रौ माध्यम बणावती बगत स्त्री नै दोयम दरजै माथै राखणवाळी बात पचाइज नीं सकै। लोक में स्त्री व्यक्ति हुवै अर वींनै ई साहित्य में ल्यायनै वस्तु बणावणौ तो अेक साजस रौ हिस्सौ ई हुय सकै। ‘बीसलदेव रास’ री रचना करती बगत ‘नरपति नाल्ह’ अजमेर रै शासक रौ स्वाभिमान बचायनै राख्यौ पण राजमती रै स्वाभिमान नै तोड़नै खातर विरह री अतिशयता रौ जाळ बुण्यौ। विरह के नारी नै ई सतावै? पुरख नै प्रेम-हेत री जरुत नीं हुवै? पुरख री भावनावां नारी जैड़ी नीं हुवै पण नारी रै स्वाभिमान री रिच्छ्या तौ हुवणी ई चाइजै ही। सिणगार अर विरह री तड़प सूं अळगी के नारी री और कोई भावना कोनीं हुवै?
‘आसाइत’ री ‘हंसावली’ नै पुरखजात सूं नफरत ही। वीं नफरत रौ कोई तौ कारण रैयौ हुयसी? बिना कारण रै तौ टाबर रै मांय ई किणी भांत री भावना पैदा नीं हुवै। हंसावली री पुरख रै पेटै घृणा री भावना रौ कारण कवि कठैई नीं बतायौ पण नफरत नै प्यार में बदळनै री कहाणी ठीक विस्तार सूं समझाई। स्त्री रौ पुरख रै प्रति आसक्त हुवणौ कोई पाप नीं पण वा स्वाभिमांन सूं जीवणौ चावै अर अेक साहित्यकार रौ धरम बणै कै वौ आपरै पात्रां रै आत्मसम्मांन नै बणायौ राखै।
चारण कवियां राजस्थान री वीरता, शौर्य, स्वाभिमांन रा गीत तौ गाया पण नारी नै फगत अेक ई रूप में देखी अर वौ रूप हौ सती रूप, देवी रूप। पति जे जुद्ध में कांम आयौ तौ सती हुवणौ तय हौ ई अर दुसमण सूं जीत हुवती नीं दीखी तौ जौहर री ज्वाला त्यार ही। ‘शिवदास गाडण’ रचना ‘अचळदास खींची री वचनिका’ में जुद्ध रा रोमांचकारी दरसाव प्रस्तुत करîा, अचळदास री वीरता अर शौर्य रा चितरांम खेंच्या, राजपरिवार री स्त्रियां नै जौहर री धधकती ज्वाला में स्नान करवायौ। औ अग्नि-स्नान रौ दरसाव राजस्थानी विद्वानां नै भलांईं रोमांचकारी लागतौ हुवै पण हगीगत मांय तौ वौ मांणस री मौत रौ रोजणौ हौ। रोजणै रौ अेक दूहौ जकौ आज ई मंचां माथै बडा-बडा विद्वान सबूत भांत राखै-
जउहर जालणहारि अजइ जळई ताई ऊचरै।
हरि हरि हरि होई रह्यौ बिसन-बिसन तणि वारि।
इतियास मांय कीं ई हुयौ हुवै पण शिवदास गाडण जे वीरांगनावां नै धधकती आग में कुदावणै री ठौड़ वांरै हाथ में तलवार पकड़ाय देंवता तौ स्त्री री आत्मसगती री कीं जाग हुवती। जद मरणौ तय हौ तौ पछै कायरां री भांत आत्महत्या क्यूं? जद मरद लड़ता-लड़ता प्रांण दे सकै तौ स्त्री क्यूं नीं? जे अैड़ौ हुवतौ तौ राजस्थान में ई कोई लक्ष्मीबाई हुई हुवती, चेन्नमा राणी हुई हुवती। राजस्थान में ई कोई अैड़ी स्त्री हुई हुयसी पण हुय सकै कै वा इतियास रै सोनल पानां में नीं मंडी। हुय सकै कठैई वा मरदानां भेख में जुद्ध मांड्यौ हुवै। कै पछै मरदानां गुणां सूं वींनै ई मरद रूप दीरीजग्यौ हुवै। 
साहित्यकारां नै दीठ अैड़ी ई रैयी कै वां में सूं कुणई नारी री वीरता नै कदै नीं कूंती, बस्स वींरौ कंवळपणौ देख्यौ। अठै तांणी कै कवि ‘अचलदास खींची री वचनिका’ री सरूवात ई जुद्ध स्वामिनी महादेवी भैरवी री स्तुति सूं करै वौ ई कवि स्त्री नै चिरळावता थकां आग में कुदावै।
‘पृथ्वीराज रासौ’ अैतियासिक रूप सूं भरोसै जोग नीं मानीजै। वींरी कथा में चैहान राजा पृथ्वीराज रै जुद्ध रौ बरणाव अर केइ्र ब्यावां रौ बखांण हुयौ है। आखै ग्रंथ नै गोख्यां पाठक नै फगत मोटै रूप सूं जकी बातां ठाह लागै वै दो बातां है- अेक राजा रौ कांम ब्याव करणौ अर दूजौ कांम जुद्ध करणौ हुवै।
राज्य री जनता रा अैनांण समूचै आदिकाल रै साहित्य में नीं मिलै। आमजन, खेत-खळा, पसु-पंखेरू, घर-बार, गांव-गवाड़, टाबर-बूढा-बडेरा के कुणई नीं हुवता शासक री रियासत में? सामान्यजन रै बिना ई शासक रौ राज के महफूज रैवतौ? पण ‘पृथ्वीराज रासौ’ समेत केई ग्रंथ पढ्यां तौ इंयां ई लागै कै वठै फगत सामंत बरग ई बासींदा हा। दूजौ कुण ई नीं।
‘पृथ्वीराज रासौ’ काव्य हिंदू-मुसळमान संघर्ष री अमरकथा रै रूप में ओळखीजै। पण इण संघर्ष री वजह स्त्री रौ फुटरापौ मानीजै। के सांचाणी दो राजावां री लड़ाई बिचाळै नारी सौंदर्य ई हुवतौ? और कोई राजनीतिक कारण नीं हुवता? सत्ता हासल करणै री हूंस कांम नीं करती? विजय पताका फरकावणै रौ मद कांम नीं करतौ? खानदानी मद कै पीढियां तांणी रमती बदळै री भावना नीं हुवती जुद्धां बिचाळै? पण अै सगळी बातां आम आदमी री सोच सूं सदीव बारै रैयी। वींनै तौ बित्तौ ई दीख्यौ जित्तौ कवि दीखावणौ चायौ। संयोगिता हुवै चायै पद्मावती कै पछै राजावां रै हरमां मांय भेडां री ज्यूं भरेड़ी स्त्रियां। कुणई वांनै कदै बूझ्यौ कै वै कठै रैवणौ चावै? किणरै साथै रैवणौ चावै? सांस रोकू भींतां रै बिचाळै महलां रौ बैम पाळती रैवणी चावै कै पछै खुलै आभै में कुदरत रै नैड़ै? कुणई नीं समझी वांरी पीड़। कुणई नीं सुणी वांरी सिसकारी। क्यूंकै वै तौ फगत अेक वस्तु ही, व्यक्ति नीं। व्यक्ति तौ वै हा जका तलवार रा धणी हा, जका स्त्री नै चेतौ करावता रैवता कै थूं तद तांणी ई महफूज है जद तांणी म्हारै हाथ मांय तलवार है, जद तांणी थूं म्हारी छतर-छींयां में है। जिण दिन म्हारै रिच्छ्या घेरै सूं बारै गई वीं दिन आफत थन्नै साबत गिट जासी। 
आज ई इतियास री बात आवता ई कोई सामान्य आदमी कै विद्वान आ ई कैवै के जित्ता ई जुद्ध हुया है उणरै मूळ कारण में स्त्री रैयी। चायै वै द्वापर-त्रेता जुग में हुया हुवै कै रियासतकाल रै सामंती बगत में। स्त्री जकी संवेदना रौ भंडार हुवै, ममता रौ सबूत हुवै, पीड़ नै मूंन रैयनै पीवणै में भरोसौ राखै, वीं स्त्री नै जुद्ध री विभीषिका रौ कारण साबत कर दीन्हौ, फगत पुरख सत्ता रै जाळसाजां।
पृथ्वीराज अर मुहम्मद गौरी रै जुद्ध लारै केई कारण कांम करै हा अेकै साथै। वौ जुद्ध आखै भारत रौ भविख चांकै हौ। आपसी रीस अर बदळै री भावना में सिलगतै सामंतां री ओछी मानसिकता रौ परिणाम हौ वौ जुद्ध। पण भुगत्यौ भोळी जनता, पृथ्वीराज रै राणीवास में भरेड़ी हजारूं स्त्रियां अर आवणवाळै बगत।
आदिकाल में अेक ‘राउल वेल’ पोथी मिलै। जकी रौ रचनकार कवि रोड मान्यौ जावै। आ पूरी री पूरी वेल कुल चूरि वंस रै सामंत री स्त्रियां रै रूप नै लेयनै रचीजेड़ी पोथी है। नख-शिख बरणाव सूं अळगी इण पोथी में कीं ई बात नीं मिलै। राजपरिवारां रै आसरै रैवणवाळै आं कवियां री मजबूरी ही कै कुबाण ठाह नीं पण इणांनै पढ्यां लागै जांणै वीं बगत वस्तु-सौंदर्य सूं अळगौ कीं नीं हुवतौ। मिनखपणै री जरुत ई नीं हुवती कै पछै वौ मिलतौ ई नीं। ‘बसंत विलास फागु’ ई लौकिक काव्य शैली में लिखी थकी रचना है। इण पोथी रै 89 पदां में बसंत रुत री मादकता में सिणगार रा संजोग-विजोग चितरांम रचीजेड़ा है। विजोग में स्त्री री हळगत रौ दरसाव करतौ पद-
इणि परि कोइलि कूजई, पूजई युवति मणोर।
विधुर वियोगिनी धूजई, कूजइ मयण किसोर।।
प्रिय रै विजोग में मरणनैड़ै हुयोड़ी स्त्री रै के और कीं कांम नीं हुवतौ? स्त्री रौ दुनिया मांय अेक ई रूप हुवै कांईं? प्रिया सूं अळगा ई वींरा बहोत-सा रूप हुवै, जिणमें वा भैण, बेटी, मां, सखी, सहचरी, मानवी नीं जांणै कित्तै रूपां में साम्हीं आवै। पण आदिकाल रै कवि नै फगत वा अेक ई रूप में रीझावै। जे नारी फगत प्रेयसी बणनै झूरती रैवती तौ स्यात् कवि री कल्पना रौ औ संसार इत्तौ फूटरौ नीं हुवतौ। इण संसार री सुंदरता तौ उणरै मानवी रूप रै कारण ई हुवै, जकै नै राजस्थानी रै आदिकालीन कवि कदै नीं देख्यौ। आ नीं कैय सकां के प्रेयसी रूप में देखणौ कवि रौ ध्येय हुवतौ, आ वींरी मजबूरी ई हुय सकै पण आपां तौ वौ ई देखां-समझां जका रचाव में है। वीं बगत जे स्त्री रै मानवी रूप माथै कलम चलाइजती तौ आज राजस्थान री स्त्री पड़दै मांय घुटनै मूंन रैवती थकी पीड़ रा घूंट नीं भरती। आज वा पुरख साथै बरौबर रा पांवडा धरनै खुदूसम्मांन री ऊंचाइयां नापती। वीं बगत दिखायड़ै मारग माथै डग भरणा आज री स्त्री सारू सौरा हुवता। 
वीं बगत रै खूट्योड़ै स्वाभिमांन नै अंवेरणै खातर आज री स्त्री नै घर अर बारै दोनूं मोरचां माथै अेक साथै जूझणौ पड़ै। चारदीवारी सूं बारै खुलै वातावरण मांय खुदूसम्मांन रै साथै महफूज रैवणै नै जीवण कैयीजै। अैड़ै ई जीवण री चावणा में प्रेयसी रौ मिथक तोड़नै व्यक्ति रूप में आज री स्त्री नै आवणौ पड़सी। आदिकाल सूं दमघुटतै राजमहलां री सोच बिचाळै पळती स्त्री नै चींत बदळनी पड़सी। सिणगार अर देह रै दायरै सूं बारै आवणौ पड़सी। जौहर री राख सूं बारै अर इतियास री खोह सूं दूर आवणौ पड़सी। मुगती रौ मारग सतीत्व में नीं खुदूसम्मांन में ढूंढणौ पड़सी। आज री स्त्री जद पुरखां री सिरजीजेड़ी भय री काळकोठड़ी सूं बारै नीं आ सकसी तद तांणी वा खुद ऊंचाइयां रा अरमांन नीं सजाय सकसी। इणी कारणै स्त्री नै इतियास री पथरीली जमीन नापणी पड़सी। स्त्री कदै तांणी हाडी राणी रै कटेड़ै सिर नै लियां ऊभी रैयसी। कदै ई तौ सिर नै चक्यां-चक्यां हाथ थकसी ई। अर जद वौ थकेलौ आयसी तद वींनै सोचणौ पड़सी कै हाडी राणी री बडम सिर काटनै सैनांणी देवणै में नीं ही, असली बडम तौ हेताळू साथै जुद्ध में जायनै वीरता सूं लड़तां थकां सिर कटवावणै में ही। आज हाडी राणी रूपी स्त्री री अस्मिता जगावण सारू डाढा जतन करणा पड़सी।
आदिकाल रै ओळाव ई क्यूं, आधुनिक काल रै अैड़ै-नैड़ै आपां अैड़ी घणी बंतळ कर सकां हां। पण बदळतै बगत-बायरै बिचाळै कवि-कथाकारां नै ई तौ बदळणौ पड़सी। आ बंतळ ई तौ हुवणी चाइजै। चाइजै कै नीं? चाइजै, क्यूंकै अजै ई स्त्री सारू काळी रात ढळी नीं है। पुरख अर स्त्री सारू जद बरौबरी री बंतळ सरू हुयसी तद ई नवै सूरज रौ ऊजास हुयसी। बीजी भासावां रै साहित्य में अैड़ी बंतळ सरू हुयग्यी। राजस्थानी साहित्य में ई बेसी रूप सूं हुवणी चाइजै।

ओ राधा तेरी चुनरी........

गर्भनाल, मासिक, मार्च—2013



सामयिक मुद्दा

 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


पिछले दिनों फिल्म के एक गाने पर हिन्दुत्व के रखवालों ने बवाल खड़ा किया। गाना था- ‘ओ राधा तेरी चुनरी.....।’ पूरा गाना सुनने और देखने के बाद मुझे इसमें कहीं कुछ गलत नजर नहीं आया। धर्म-दण्ड-धारियों का कहना था कि इस गाने में हमारी आराध्य देवी का अपमान किया गया है। हर एक अखबार, हर एक इलेक्ट्रोनिक चैनल ने इस मुद्दे को बहस काबिल समझा। बहस के लिए कुछेक व्यक्तियों को चुना गया जिसमें फिल्म उद्योग, सामाजिक क्षेत्र, राजनीतिक दल और हिन्दू धर्म के रखवाले कई महात्माजी शामिल थे। 
मुद्दे पर बहस के समय वाजिब है कि पक्ष-विपक्ष में तकरार होती है। तर्क भी आते हैं और कुतर्क भी। मगर लगातार आश्चर्य तो तब हुआ जब भगवा वेशधारी और माथे पर भारी-भरकम सा टीका लगाए इन महात्माओं ने जोर देकर कहा कि राधा का नाम एक बाजारू औरत के साथ जोड़कर फिल्म इंडस्ट्री ने हिन्दू धर्मावलम्बियों की भावनाओं को ठेस पहुचाने का कार्य किया है। 
यहां सबसे पहल सवाल तो बीच बहस में यही उभरता है कि इन महात्माओं ने बाजारू किसे कहा? या तो उस लड़की को जिसने कहानी के पात्र का चरित्र निभाया या फिर उस कहानी के पात्र को, जो युवा मन की उड़ानों के बीच भविष्य के सपने देख रही थी? एक आम हिन्दुस्तानी परिवार की बेटी, जो जीवन की जद्दोजहद के बीच से अरमानों की राह खोज रही थी।
दूसरा सवाल जो मानस-पटल पर दस्तक देता है वह यह कि इन महात्माओं ने बाजारू कहा भी तो यह बाजार निर्मित किसने किया? इस बाजार में कौन बैठता है? यहां खरीद-फरोख्त कौन करता है? जब इस बाजार में खरीदने और बेचने वाला पाक है तो फिर बिकने वाले को क्यों गरियाया जाता है? बिकने वाली से किसी ने पूछा कि तुम बिकना चाहती भी हो या नहीं? इस बाजार में तो सदियों से पता नहीं कितनी ही राधा, सीता, द्रोपदी, माधवी बिकती आई हैं। परंतु यह भी सत्य है कि ये तो शीतल लौ हैं, जो दूसरों के लिए जलना जानती हैं। जिस दिन इन्होंने अपने लिए जलना सीख लिया उस दिन तुम्हारे बाजार और तुम सभी सूनी पड़ी गलियों से खिसकोगे।
ये हिन्दू धर्म के मठाधीश बड़ी-बड़ी बातें बोलते वक्त यह भूल जाते हैं कि सबसे अधिक राधाएं तो मंदिर-मठों के तहखानों में दम तोड़ती हैं। उनकी चीखें मंदिरों के प्राचीरों को चीरती हुई रात्रि के अंधेरे में कहीं गुम हो जाती हैं। दिन के उजाले में लम्बा-सा तिलक लगाए बैठे पंडित ने रात्रि के अंधकार में किसके जीवन को लील लिया, कोई नहीं जानता। कौन जानता है कि पाखण्डियों के जाल में फंसी हुई कितनी ही भोली किशोरियों का जीवन काली स्याही से पोत दिया जाता है। कितनी ही विधवाओं का जीवन धर्मस्थलों पर दम तोड़ देता है। दिन में भगवान की सेवा करने वाली ये दासियां रात्रि में धर्मधारी मुस्टण्डों के हवस की शिकार बनती हैं। दिन में ये नापाक विधवाएं पंडों के लिए अछूत होती हैं और रात्रि मंे भोग का निर्जीव साधन। जब ये धर्म के रखवाले बोलते ही हैं तो इन मुद्दों पर क्यों नहीं बोलते? मानव जाति को कलंकित कर देने वाले इन मुद्दों पर जब ये लोग नहीं बोल सकते तब फिर जनता के बीच जाकर उनके आनंद के क्षणों को छीनने का अधिकार इनको किसने सौंपा?
क्या सिर्फ आप हिन्दू हैं? जिन लाखों परिवारों में इस गाने को बड़े ही आनंद के साथ सुना गया और उल्लास से झूमा गया, तब क्या वे हिन्दू नहीं? क्या हिन्दू धर्म पर आपका कब्जा है? क्या हिन्दू देवी-देवताओं के नामों पर आपने काॅपीराइट ले रखा है? जिन हिन्दुओं को इस गाने से कोई शिकायत नहीं, न ही राधा के नाम का प्रयोग करने से कोई शिकवा, तो क्या आप उन्हें हिन्दू नहीं मानते? क्या हिन्दू होने का प्रमाण पत्र आपसे लेना होगा?
हिन्दू धर्म अनुयाइयों की भावनाओं को ठेस तो ये मठाधीश पहुंचाते हैं। वे क्यों एक आम व्यक्ति को कुंद करना चाहते हैं? यह मत करो, वह मत करो। यह धर्म विरुद्ध है, यह धर्म के लिए अनिवार्य है! धर्म के बाहर सोचोगे तो तुम नापाक हो जाओगे। क्यों ऐसे नियम धर्म के नाम पर लादते हैं, जिससे व्यक्ति स्वतः ही धर्म विरोधी होने को मजबूर हो जाए? क्यों एक आम आदमी की स्वछंदता पर रोक लगाने के दुष्चक्र कर रहे हैं?
पौराणिक कहानियों के सभी पात्रों को सारे हिन्दू सिर्फ देवता ही मानें, यह जरूरी तो नहीं। मैं व्यक्तिशः राधा और कृष्ण को एक पौराणिक उपन्यास का पात्र मानती हूं। क्या मैं हिन्दू नहीं हूं? क्या आप रोक सकते हैं, मुझे हिन्दू होने से? क्या इस गाने को फिल्माने वाली पूरी टीम को आप हिन्दू धर्म से बाहर कर सकते हैं? इस गाने और फिल्म को देखने वाले और आनंदित होने वाले हजारों-लाखों की संख्या में उमड़े दर्शकों को क्या आप सजा देने वाले हैं? दे सकते हैं?
जब सिनेमा के पर्दे पर राधा नाचती है तब तो आपको बड़ी दिक्कत होती है, मगर भागवत कथा के नाम पर इकट्ठी हुई भीड़ में जब राधाएं ठुमके लगाती हैं, तब आप बड़े हर्षित होते हैं। आप भी इन राधाओं के साथ झूम उठते हैं और कहते हो, देखो! हमारी राधाएं नाच रही हैं, अपने कान्हा के लिए। कहां राधा है और कहां कान्हा, यह तो आप भी जानते हैं और भोली जनता भी। मगर क्या करे यह जनता? सदियों से भ्रमित हुई राहें इतनी जल्दी पाखंडों के जाल से नहीं छूट सकेंगी।
गाने की राधा ने अच्छे-से अंगिया-चोली और बड़ी-सी चुनरी पहन रखी है। उसको देखकर कहीं-किसी के मन में गलत विचार नहीं आ सकते और किसी के मन में आते भी हैं तो यह उस मन का खोट है, गाने के दृश्य का नहीं। अपने-आप को राधा का भक्त मानने वाले पाखण्डियों से तो गाने की वह पात्र अच्छी है, कम से कम राधा को सरे आम नंगा तो नहीं करती। अपने-आप को भक्त कहने वाले इन रसिकों ने राधा को अभिसार के लिए निकली हुई नायिका से अधिक कभी कुछ नहीं माना। राधा को तो कृष्ण की केलि के लिए निर्मित किया है आप लोगों ने। जब एक गृहस्थ स्त्री को अपने पति और बच्चों को छोड़कर कृष्ण की बांसुरी पर उन्मुक्त होकर जंगल की तरफ जाने के लिए विवश करते हैं तब आप नहीं सोचते कि राधा के साथ यह न्याय है या फिर अन्याय? आपके बताए हुए इसी रास्ते पर जब एक आम स्त्री या पुरुष चलने की कोशिश करता है तब आप बौखला उठते हैं। धर्म की दुहाई देते हैं। समाज के नियम याद दिलाते हैं। आपकी इस दोगली नीति के कारण इस हिन्दू संस्कृति पर फिर से विचार करने के लिए लोग विवश होते हैं। भगवा वस्त्र पहनकर, माथे पर बड़ा-सा तिलक लगाकर बड़े-बड़े प्रवचन देना आसान है, मगर गृहस्थ धर्म निभाना इतना आसान नहीं। फिल्म इंडस्ट्री कितने लोगों को रोजगार से जोड़ती है, मंनोरंजन के साथ जनता को कितनी हकीकतों से रू-ब-रू करवाती है, यह भी यहां विचारणीय हो जाता है। हां, कहीं-कहीं कमी रह जाती है लेकिन वह अंतिम सत्य नहीं होता। 

हकीकत मंे राधा का अपमान तो धर्म के सौदागरों ने किया है। राधा एक सामान्य स्त्री थी, जिसने अपने जीवन में संघर्ष किया ओर उसी संघर्ष में जूझती को छोड़कर कृष्ण अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने मथुरा चला गया। वापस मुड़कर पूछा भी नहीं कि क्या तुम ऐसे हालातों में जी पाओगी? संघर्षों से मुक्ति तो उसने भी चाही होगी मगर नहीं तो तब और नहीं अब, उसे मुक्ति मिल सकी है। पत्थर में ढालकर, मंदिर में बैठाकर उसकी यातनाओं के सफर को हिन्दुत्ववादियों ने कभी खत्म नहीं होने दिया। अब वह राधा आपके इस पाखण्ड-जाल से मुक्ति चाहती है। उसे मत रोको। मुक्त कर दो। उन्मुक्त कर दो। वरना किसी दिन राधा संघर्षों से बाहर आकर आंख दिखाने लगेगी और ध्वजवाहक बने आप देखते रह जाओगे। बदलाव को स्वीकार करने का माद्दा पैदा करो, खुद में। समय की यही मांग है।







मणि मधुकर की नाट्य कला

एक और अंतरीप, अक्टूबर—दिसम्बर, 2012



 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


भारत में नाट्य-परंपरा वैदिक युग से चली आ रही है। भरत नाट्य-शास्त्र में ‘अमृत मंथन’ नाटक का उल्लेख मिलता है। यह परंपरा संस्कृत साहित्य में उत्कृष्ट कोटि के नाटकों तक चलती रही। संस्कृत नाटक के समानांतर लोक नाट्य परम्परा भी चली आ रही थी। 
किसी भी राष्ट्र का आम जन अपने वातावरण और रुचि के अनुसार मनोरंजन के साधन ईजाद कर ही लेता है। शिक्षा से वंचित समाज में जीवन के अनुरूप हास्य-विनोदमय नाटक का सृजन होता रहा है। संस्कृत के साथ-साथ जनभाषा का भी अनेक रूपों में विकास होता रहा। इन जनभाषाओं में नाट्य के अनेक रूप मिलते हैं। इन देशी भाषाओं में शताब्दियों से जननाटकों का अभिनय होता रहा है। जैसे- बंगला में यात्रा एवं कीर्तनियां नाटक, बिहार में विदेशिया। अवधी, पूर्वी हिंदी, ब्रज एवं खड़ी बोली में रास, नौटंकी, स्वांग, भांड। राजस्थानी में रास, झूमर, ढोलामारू। गुजराती में भवाई। महाराष्ट्री में लडि़ते और तमाशा। तमिल में भी भगवतमेल आदि नाट्य रूप थे। इनमें नाटक के अन्य तत्त्व गौण रहते एवं संगीतमय वातावरण की प्रधानता रहती। इसके अलावा जाति विशेष भी अपनी रोजी के लिए विशेष स्वांग रचती, जो नाट्य का ही एक रूप होता। स्त्रियां भी सामूहिक रूप से नृत्य-गान संयुक्त अभिनय करती।
नाटकों के इसी लोक स्वरूप का विवेचन करते हुए डाॅ. दशरथ ओझा लिखते हैं- ‘‘पठित समाज के सदृश्य अपठित तथा अर्द्धपठित समाज में भी प्रतिभाशाली व्यक्ति होते रहते हैं, जो अपने समुदाय के अनुरूप जनकाव्य और जननाटक का सृजन करते रहते हैं। उनकी रचना द्वारा लक्ष-लक्ष ग्रामीण जनता दृश्य तथा श्रव्य काव्य का रसास्वादन करती है। यह परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है।’’ 
हिंदी नाटक की परंपरा का मूल स्रोत यह जननाटक ही हैं। जननाटक ने ही क्रमशः विकसित होकर साहित्यिक नाटक का रूप ग्रहण किया। इस विकास प्रक्रिया में संस्कृत तथा अन्य भाषाओं के स्रोत भी आ मिले और हिंदी नाटकों का एक उच्च कोटिय उत्कर्ष हमारे सामने हैं।
चूंकि हिंदी नाटकों का उद्भव भारतेंदु युग से माना जाता है। प्रारंभिक नाटकों में प्राणचंद चैहान कृत ‘रामायण महानाटक’, हृदयराम कृत ‘हनुमन्नाटक’, बनारसीदास कृत ‘समयसार’, गुरु गोविंदसिंह कृत ‘चंडी चरित्र’ आदि नाटकों का उल्लेख किया जाता है। इन नाटकों के पद्यबद्ध होने के कारण कुछ विद्वान इनको नाटक श्रेणी में नहीं मानते। परंतु तत्कालीन मनोवृत्ति पद्य की ओर झुकी हुई थी तथा गेय भी थी। परंतु गेय होने के कारण इनको नाटकों की श्रेणी से बाहर नहीं रखा जा सकता।
भारतेंदु ने ‘नाटक’ नामक ग्रंथ लिखकर हिंदी नाटक को एक व्यस्थित रूप देने का सफल प्रयास किया। पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद, वेशभूषा, रंगमंच सज्जा आदि का विस्तृत वर्णन कर भारतेंदु ने हिंदी नाटक को गरिमामय ऊंचाई पर पहुंचाया। तब से लेकर अब तक हिंदी नाटक निरंतर प्रगति करता आ रहा है।
हिंदी नाटक-परंपरा में अनेक नाटककार हुए, जिन्होंने अपनी प्रतिभा से नाटक को नया रूप-रंग देने का प्रयास किया। उन्हीं प्रतिभाओं में से एक नाटककार का नाम इस आयोजन स्थल के क्षेत्र से भी जुड़ा है। राजस्थान के चूरू अंचल के इस भूभाग में राजगढ़ तहसील का गांव सेऊवा। वहीं वैद्य श्री भूरामल शर्मा के यहां बालक मनीराम शर्मा का 11 सितंबर, 1947 को जन्म हुआ, जोकि आगे चलकर साहित्य के क्षेत्र में मणि मधुकर के नाम से ख्यात हुआ। मणि मधुकर ने हिंदी नाटक को नए आयाम प्रदान किए। उन्होंने साहित्य के शास्त्रीय बंधनों को तोड़कर जनभाषा में आम व्यक्ति का चित्रण किया। अपने आस-पास बिखरे कथ्यों के साथ-साथ व्यवस्था की विसंगतियों को उभारने का प्रयास किया। इसीलिए कई दफा उन पर अश्लीलता का दोषारोपण भी किया गया। जो समाज में घटित हो रहा है वह अश्लील नहीं, फिर साहित्य में व्यक्त होते ही उसे क्यों नकारा जाए? यह भी मणि मधुकर के हवाले से विचारणीय प्रश्न है।
मणि मधुकर ने हिंदी साहित्य को कई नाटक दिए। नाटकों के अलावा मणि मधुकर ने पर्याप्त मात्रा में कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृतांत, संस्मरण आदि विधा को भी समृद्ध किया। मणि मधुकर ने बहुत कम उम्र में ही साहित्यिक ऊंचाइयों को छुआ है। मणि मधुकर की प्रतिभा के बाबत ख्यातनाम साहित्यकार डाॅ. आलमशाह खान लिखते हैं- ‘‘....मणि नहीं चाहकर भी नगर-बोध को कवि है पर चाहकर भी नगर-बोध का कथाकार नहीं बन सका। वह गांव-ढाणी लू-लतर का ही कथाकार है। वह लोक का नाटककार है, तो आने वाले कल का साहित्यकार है। जटिल-सरल संवेदना का धनी मणि कहानी में ऊंचा, कविता में गहरा और नाटक में समर्थ है।’’ 
मणि मधुकर का प्रथम नाटक ‘रसगंधर्व’ सन् 1975 में प्रकाशित हुआ। उल्लेखनीय है कि यह नाटक प्रकाशित होने से पहले ही मध्यप्रदेश कला परिषद द्वारा 1 दिसंबर, 1973 को मंचित भी किया जा चुका था। रसगंधर्व मराठी, कन्नड़ और बांगला में अनूदित होकर खेला गया। कई विश्विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी लगाया गया। इस नाटक से मणि मधुकर को विशेष ख्याति प्राप्त हुई। नए प्रयोग, छोटे-छोटे संवाद, सरल शब्दावली और व्यवस्था की खामियों को उजागर करता हुआ यह नाटक उनकी कीर्ति का एक स्तंभ बन गया। इस नाटक के लिए साहित्य इतिहासकार डाॅ. रामचंद्र तिवारी लिखते हैं- ‘‘रसगंधर्व आज की राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों की अर्थहीनता और विसंगति का अहसास कराने वाला एक सर्वथा नवीन नाट्य प्रयोग है।’’  इसी नाटक के लिए टिप्पणी करते हुए गिरीश रस्तोगी ने लिखा- ‘‘उसे न मात्र एब्सर्ड नाटक कहा जा सकता है, न यथार्थवादी, न मात्र एक फैंटसी और न प्रतीकात्मक नाटक, वस्तुतः उसकी सारी विशेषता अपने उस लचीलेपन में हैं, उस समन्वित सौंदर्य और संश्लिष्ट काव्य-दृष्टि में हैं, जो उसमें पैदा होती जाती है।’’  
सिद्धनाथ कुमार रसगंधर्व नाटक के विषय में लिखते हैं- ‘‘रसगंधर्व न कथानक का नाटक है, न चरित्र का- यह तो विचारों का, विचारों से अधिक अपने युग-मानस में उमड़ती-घुमड़ती विभिन्न प्रकार की विक्षुब्ध अनुभूतियों का नाटक है।’’ 
रसगंधर्व के बाद निरंतर मणि मधुकर के नाटक प्रकाशित होते रहे। सन् 1978 में ‘बुलबुल सराय’, सन् 1978 में ही ‘दुलारी बाई’, सन् 1979 में ‘खेला पोलमपुर’, सन् 1980 में ‘इकतारे की आंख’ और इसी क्रम में छपे ‘इलायची बेगम’ तथा ‘बल्ले-बल्ले बोधि वृक्ष’ आदि नाटक मणि मधुकर की साधना के फल हैं।
नाटक ‘दुलारी बाई’ में परंपरागत संस्कारों, अंधविश्वास और रूढि़यों पर करारी चोट की गई है। ‘बुलबुल सराय’ में राजनीतिक विसंगतियों पर व्यंग्यात्मक प्रहार किया गया है। ‘इकतारे की आंख’ में कबीर का व्यक्तित्व केंद्र में रहा है।
मणि मधुकर के नाटककार के साथ यह खुशनसीबी रही कि उस द्वारा रचित सभी नाटक मंचित हुए और प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। मणि मधुकर के नाटकों में हमेशा नए प्रयोग हुए हैं, प्रयोगों में सफलता भी मिली। हिंदी के साथ-साथ अन्य भाषाओं में इनके नाटकों को अपनाया गया। अपने नाटकों के बारे में मणि मधुकर ने कहा- ‘‘रसगंधर्व के बाद मैंने राजस्थान के कुचामणी, सुरध्याणी आदि ख्यालों को नए धरातल पर रंग-विधान देना चाहा और ‘बुलबुल सराय’, ‘खेला पोलमपुर’ और ‘दुलारी बाई’ जैसे नाटक लिखे। मैंने देखा कि यदि सधे हुए हाथों का इस्तेमाल किया जाए तो पारसी थियेटर में भी कुछ संभावनाएं हैं- ‘दुलारी बाई’ में मैंने उसे अपनाया। नतीजा अच्छा निकला। आज ‘दुलारी बाई’ शायद हिंदी का एकमात्र आधुनिक नाटक है, जिसके पांच हजार से भी अधिक प्रदर्शन हो चुके हैं- विभिन्न भारतीय भाषाओं में।’’  
विसंगतियों को उघाड़ने के लिए, व्यवस्था का विरोध करने के लिए एक सशक्त व्यक्तित्व की दरकार होती है। मणि मधुकर ने अपने नाटकों के लिए यह स्वीकार भी किया- ‘‘मेरे तमाम नाटक व्यवस्था-विरोध और एक स्पष्ट परिवर्तन की कामना वाले नाटक हैं। जाहिर है कि सत्ता को, चाहे वह किसी भी दल की हो, ऐसा नाटककार आंख की किरकिरी लगता है। पग-पग पर इन खतरों की नियति है। किंतु यह भी सही है कि अब मेरा एक प्रशंसक वर्ग है, दर्शक वर्ग है- और उसका नैतिक समर्थन मुझे प्राप्त है।’’  मणि मधुकर ने यह समर्थन न केवल अपने नाटकों के बूते पर अपितु ‘कल्पना’, ‘अकथ’, ‘रंगयोग’, ‘प्रसंग’ आदि लोकप्रिय हिंदी पत्रिकाओं के संपादन के माध्यम से भी जुटाया।
मणि मधुकर के सारे नाटक एक विस्तृत शोध दृष्टि चाहते हैं। परंतु इस पत्र के बहाने किसी एक नाटक पर संक्षिप्त प्रकाश ही डाला जा सकता है। विषयों के विभाजन के बीच सत्ता केंद्रित लालसाओं के वर्तमान युग में मणि मधुकर कृत ‘खेला पोलमपुर’ एक सशक्त नाटक है। यह नाटक अस्सी के दशक में जितना प्रासंगिक था, उससे भी अधिक वर्तमान में प्रासंगिक जान पड़ता है। इस नाटक के महत्त्व को दर्शाते हुए डाॅ. रामचंद्र तिवारी ने लिखा है- ‘‘खेला पोलमपुर में स्वार्थलोलुप सत्ता के दिग्भ्रमित होकर विनष्ट होने की ओर संकेत किया गया है।’’ 
खेला पोलमपुर का प्रथम मंचन ‘अभियान’ संस्थान द्वारा 18 मार्च, 1975 को फाइन आर्ट्स थियेटर, नई दिल्ली में हुआ। प्रकाशित होने से पूर्व ही मंचित इस नाटक को खूब प्रसिद्धि मिली। इसके बाद यह अन्य भाषाओं में अनूदित एवं मंचित होता रहा। इस नाटक के पात्र प्रतीकात्मक हैं, जिनकी संख्या चैदह हैं। नाटक की शुरूआत मंगलाचरण से होती है। सत्ता के प्रतीक लक्खी शाह, फूलकंवर, जल्लाद और दाताराम हैं। भूत-1,2,3 अंधविश्वास, रूढि़, सनातन परंपराओं के प्रतीक हैं। जानी हिंजड़ा दासता एवं बुजदिली का प्रतीक है। जडि़या, अपने ही अंदर सिमट कर जीवन गुजार लेने वाले आमजन का प्रतीक है। समरू जाट व्यवस्था एवं सत्तालोलुपता के जाल को तोड़कर सर्वजन को उजाला दिखाने वाली क्रांति का प्रतीक है।
नाटक में एक सामान्य व्यक्ति का विचलन उभरता है। वह न तो राष्ट्रों को सीमाओं में बांटना चाहता, न व्यक्ति को धर्म एवं जातियों में बांटना चाहता। वह जीवन की गति को निर्बाध रूप से बहने देना चाहता है, मगर सत्ता उसे बांटती है, तनाव में धकेलती है, युद्ध में झोंकती है, मरने और मारने को विवश करती है। स्वार्थसिद्धि के बाद जब सत्ता आमजन को नकार देती है, भुला देती है, तब उसके दिमाग में विचलन पैदा होता है। किसी सत्ता के पक्ष में युद्ध करने के बाद लौटे हुए समरू के पास अब कुछ भी अपना या पराया नहीं है। वह सोचता है- ‘‘बोलो समरू जाट, अब तुम क्या करोगे? कहां जाओगे? ....लड़ाई खत्म हो गई। जीतने वाले जय-जयकार के साथ पहुंच गए महलों में, परकोटों में...और तुम- अंधेरे के सामने। असल में- तुम्हारे साथ यह हुआ समरू जाट, कि जिन हाथों को हल की मूठ पर होना चाहिए था, उनमें बंदूक थमा दी गयी। तुम लड़े, पता नहीं, किसके खिलाफ लड़े? खूब खून-खराबा हुआ। एक रोज अचानक सफेद झंडे लहरा उठे। किसी ने किसी से समझौता कर लिया। और तुम? दूसरे सिपाहिओं की भीड़ में अपने को धकेलते हुए लौट पड़े। यह लौटना, मुर्दे की तरह लौटना है।’’ 
पोलमपुर का शासक लक्खी शाह। उसकी पत्नी फूलकंवर। यह सत्ता के प्रतीक हैं। सत्ता बनाए रखने के लिए क्रूरता का खेल सदियों से चला आ रहा है। ‘खेला पोलमपुर’ नाटक में उसे सशक्त ढंग से व्यक्त करने का सार्थक प्रयास किया गया है। लक्खी शाह चाहता है कि उसकी सत्ता बनी रहे। वह सदियों तक जिंदा रहे। उसके राज्य में रोज एक व्यक्ति को फांसी पर चढाया जाता है और माना जाता है कि मरने वाले की उम्र लक्खी शाह को लग जाती है। सत्ता में बने रहने की यह अतृप्त वासना उससे घृणित कार्य भी करवाती है। क्रूर व्यवस्था को व्यक्त करती हुई नाटककार की पंक्तियां- ‘‘सोती है रात, जहां पर रोज/छुपाकर ताजा जख्मों को/हर सुबह/रक्त के धब्बे लेकर/जगती है।/ खूनी पंजों में ठहरी हुई जिंदगी को/राजा के बर्बर, हत्यारे मन की/आकांक्षा ठगती है!’’ 
सत्ता के भीतर-बाहर बैठे सत्तालोलुप लोग एक-दूसरे के प्रति आशंकित रहते हैं। पता नहीं कब किसका विश्वास टूटकर बिखर जाए। कौन किसके विरुद्ध षड्यंत्र रच रहा है और सत्ता मद में किसी का भी गला दबाया जा सकता है। आमजन की जिंदा लाशों पर सत्ता का यह आशंकित महल खड़ा है। विसंगतियों से घिरे इस महल की नींव में युगों से ईमानदारी और परिश्रम का रक्त दबा हुआ है। इस सत्ता जाल से छुटकारा पाने का रास्ता कहीं नजर नहीं आता। नाटककार व्यक्त करता है- ‘‘प्रजाजनों की पीठ टूटकर/नींव बन गयी/भव्य झरोखों में जाली-सी/टंगी रह गयी/एक अधूरी चाह-/बोलो, बोलो, इन मायावी कंगूरों का/जादू कैसे टूटेगा?/बाहर-भीतर, सब जगह प्रेत/कैसे कोई उनके छल से बचकर/साबूत छूटेगा?’’ 
रानी फूलकंवर अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए रक्त बहता देखकर खुश होती है। राजा लक्खी शाह अपनी राजसत्ता बचाने के लिए दुश्मन शासक के सामने रानी फूलकंवर को प्रस्तुत कर देता है। दर्शक के सामने यहां आकर सवाल खड़ा होता है कि आत्मसम्मान को बेचने वाला यह राजा स्वयं कब तक बच पाएगा?
व्यवस्था के साथ-साथ प्राकृतिक आपदाओं और जनता की समस्याओं को भी नाटककार ने बखूबी उभारा है। भूतों की तृप्ति की लालसा के लिए समरू उन्हें ऐसी जगह ले जाने को कहता है, जहां मनुष्य का कोई मूल्य नहीं। उसकी समस्याओं को जानने वाला कोई नहीं। भूत पूछते हैं कि वह जगह कहां हैं। समरू कहता है- ‘‘जैसलमेर! नौ साल से अकाल पड़ा हुआ है। चींटी-मकोड़ों की तरह लोग मर रहे हैं- प्यास से, भूख से। कोई उनकी सुध लेने वाला तक नहीं।’’ 
जहां सत्तालोलुप और सुविधाभोगी लोग रहते हों, उस राष्ट्र या समाज का भविष्य अंधकारमय है। नाटककार दीवान के मुंह से कहलवाता है- ‘‘नादानी मत करो। लक्खी शाह का हुक्म अटल है। अंधकूप ही इस मुल्क का वर्तमान और भविष्य है।’’ 
आधुनिकयुगी आवरण ओढ़े हुए लोगों पर नाटक में व्यंग्य किया गया है। जीवनभर शोषक बना रहने वाला सत्तासीन व्यक्ति महान् कहलाने के लिए अनेक हथकण्डे अपनाता है। नाटककार इन्हीं दोगले व्यक्तित्व वालों पर प्रहार करता है- ‘‘आजकल मूर्ति ही महानता की कसौटी है, मौत महारानी! चैराहे पर जिसकी मूर्ति लग जाये, वही महान्!’’ 
सत्ता की क्रूरता जब सीमाएं लांघने लगती है।  तब आमजन शोषण की चक्की में पिसता-पिसता लोहे से भी कठोर बन जाता है। उसका चिंतन जाग्रत होता है। वह जड़ता को तोड़ने के लिए उठना चाहता है। नाटककार उसी व्यक्ति की चिंता को उभारता है- ‘‘पोलमपुर का शासन था/खूंखार, क्रूर!/समरू, हां, समरू जब-तब सोचा करता था-/हम जिंदा हैं, जैसे भेड़ों के झुंड-/ऊन जितनी भी होती है शरीर पर/सब उतार ली जाती है।/जनता आंसू पीकर, अंगारे खाती है!/क्या होगा, क्या होगा आगे?/कैसे जन-रोष-राग जागे!’’ 
पीडि़त जनता का चिंतन जब प्रखर हो उठता है तब जनक्रांति होती है। सत्ता की चूलें हिल उठती हैं। दूसरों की मेहनत पर सत्तासीन शोषक एवं आभिजात्य के घमंड में बैठे लोग धराशाही हो जाते हैं- ‘‘निर्दयी शासन ने/जिनको आहत कर डाला था,/समरू था एक प्रतीक-/उन्हीं के अन्तर्मन की ज्वाला का!/जब होता है षड्यन्त्र/आदमी की बुनियादों के विरुद्ध/यह ज्वाला निर्णय लेती है,/चुनकर कोई समरू सुजान/अपनी सारी ताकत,/आवाज,/सूझ उसको दे देती है!/सत्ता बनती है मौत अगर/खुद मौत उसे खा जाती है,/बह जाते हैं सिंहासन/जब जनरोष-घोष की/धारा उमड़ी आती है।’’ 
नाटककार मणि मधुकर ने ‘खेला पोलमपुर’ में उस वर्ग को उभारा है जो खुद मेहनत में विश्वास रखता है। आशंकाओं से घिर कर निढ़ाल नहीं होता। उसे कल की चिंता है, मगर आज का अहसास भी है। नाटक ‘खेला पोलमपुर’ अपने सृजनकाल सन् 1979 में जितना महत्त्व रखता था, आज भी उतना ही कारगर है। इस नाटक को ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘दिनमान’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, बांगला ‘जुगान्तर’, मराठी ‘लोकसत्ता’ के साथ-साथ ‘स्टेट्समैन’ ने भी हाथोंहाथ लिया। ‘स्टेट्मैन’ में लिखा गया- ‘‘नाटक कभी इतिहास, कभी जनश्रुति, कभी आज के ‘समय’ का आभास देता हुआ आगे बढ़ता है। समरू का चरित्र सर्वहारा और शोषित वर्ग के चरित्र को उजागर करता है। उसका क्रोध और विरोध कहीं भी व्यक्तिगत नहीं लगता है, गायक मंडली के माध्यम से वह समूह की अभिव्यक्ति बन जाता है।’’ 
नाटक ‘खेला पोलमपुर’ मणिमधुकर के समग्र दृष्टिकोण को भी अभिव्यक्त करता है। सारभूत चारों तरफ फैली अफवाहों को नजरअंदाज कर नये सूर्य के अभिवादन को आतुर नाटक का एक पात्र कहता है- ‘‘अफवाहें फैलाने वाले परिवर्तन के विरोधी होते हैं। उनकी बातों पर ध्यान मत दो। जब घरों में, खेतों में, मेहनत-मजदूरी के धंधों में नये मोर्चे खुलंेगे तो सारी धुंध अपने-आप छंट जाएंगी। लेकिन सचेत रहना है। वर्तमान मिट्टी की सोंधी महक से और भविष्य को हरियाली के घने तंतुओं से बुनना है।’’ 
भविष्य के घने तंतुओं का निर्माण करने वाला यह नाटककार मणि मधुकर हिंदी साहित्य के नाट्य धरातल पर आज सशक्त भूमिका के साथ खड़ा है। नाट्य इतिहास के सिंहावलोकन में मणि मधुकर को प्रमुखता से भले ही नहीं लिया जाए, परंतु हमारा यह सौभाग्य है कि उन्हें गौण भी नहीं किया जा सकता। मणि मधुकर के सभी नाटक हिंदी साहित्य के इतिहास की झांकी में सुसज्जित रहेंगे। वहीं नाटक इतिहास के अवलोकन में समकालीन बने रहेंगे।

स्वयं प्रकाश की रचनाओं में लोककथात्मक शैली

‘मेरी प्रिय कथाएं’ के विशेष संदर्भ में

 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


बचपन में दादी-नानी से सुनी हुई कहानियों को सच मानता हुआ बच्चा स्वप्निल संसार में रंगीन पंखों से परवाज भरता है। उस संसार में पराक्रमी राजा और बुद्धिमती रानी, दुनिया की सबसे खूबसूरत राजकुमारी और बलवान राजकुमार होते हैं। खिले हुए फूल, मंडराते भंवरे और सुख-शांति का साम्राज्य इर्द-गिर्द होता है। दूर बियावान में रहने वाला राक्षस और पिंजरे के तोते में बसते उसके प्राण, यथार्थ लगता है। उन कहानियों में होते हैं चोर, डाकू और एक बड़ी-सी सेना। इन सबसे मौजूद रहती हैं दूर परी लोक में विचरण करती हुई परियां। इस काल्पनिक जगत में सैर-सपाटा करता बचपन जब किशोरावस्था की देहरी पर दस्तक देता है तब उसका जुगुप्सू मन इन कहानियों के मिथ्या तत्व को पहचानने लगता है। इन कहानियों के रोमानी संसार से निकलकर जब वह व्यवस्था के थपेड़ों में घिरता है तब उसके इर्द-गिर्द नई कहानियां होती हैं और उनके पात्र बदल से जाते हैं। किशोर का उलझा हुआ मन वहां उस नायक की खोज करता है, जो व्यवस्था की क्रूरताओं से निपट सके। मगर व्यवस्था का तानाबाना अपने-आप में ही इतना जटिल एवं उलझा हुआ सामने होता है कि रास्ता बनाना मुश्किल-सा लगता है। 
कैशोर्य को लांघने वाला युवा मन, जो आंतरिक एवं बाह्य द्वंद्व से घिरा हुआ होता है, वह एक सहज-सीधा रास्ता खोजना चाहता है, जहां उसके भटकाव को भी ठिकाना मिल जाए और व्यवस्था का यथार्थ भी समझ में आ जाए। वह युवा मन अगर साहित्य जगत में उतरता है तो वहां प्रेमचंद, भीष्म साहनी, अमरकांत जैसे कथाकारों को चयन करता है, क्योंकि वहां कथा का बहाव बड़ा सहज है। वहां व्यवस्था पर गहरा प्रहार भी है तो किस्सागोह का रसास्वाद भी। 
स्वयं प्रकाश की कथाओं में भी यही किस्सागो प्रवृत्ति है और जो पाठक को सहज ही अपनी तरफ खींच लाती है। व्यवस्थाओं पर प्रहार करती स्वयं प्रकाश की कलम जहां आंतरिक हलचल पैदा करती हुई ज्वार लाने में सक्षम हैं, वहीं उबलते मन और अंतद्वंद्व झेलते मस्तिष्क को भाटे के मानिंद शांति भी प्रदान करती हैं। उल्लेखनीय यहां स्वयं प्रकाश के बारे में यह हो जाता है कि उनकी इस विविधता में भी सहजता और सरलता मौजूद रहती है। स्वयं प्रकाश की कहन सहजता के बारे में कैलास बनवासी लिखते हैं- ‘‘स्वयं प्रकाश को पढ़ते हुए आप बहुत जल्दी उनके बारे में राय बना सकते हैं। उनकी कहानियों में कहीं कोई गढ़ी हुई रहस्यमयता, जटिलता या अनावश्यक गंभीर उलझाऊ वाक्य नहीं मिलेंगे। उनमें एक सरलता है, सादगी है, जोश है, मस्ती है, छेड़खानी है और मनभावन बदमाशियां हैं- एकदम प्राकृतिक, किसी नदी के समान। उनकी ये प्रवृत्तियां चीन्ह लेने के लिए पाठक को साहित्य का गहरा जानकार होने की कतई जरूरत नहीं।’’ 
इस सरलता और तरलता के बहाव में जब स्वयं प्रकाश का कहानी संग्रह ‘मेरी प्रिय कथाएं’ हाथ में आता है तो पठनीयता और मुखरित होती है। यहां आकर स्वयं प्रकाश की कलम लोक के मानिंद उत्साहित और रसीली हो जाती है, वहीं गंभीरता भी अख्तियार किए रहती हैं। इस संग्रह में कथाकार स्वयं प्रकाश ने लोककथा शैली का प्रयोग किया है। कथ्य की जटिलता इन कथाओं से गायब है। इन कथाओं के पात्र सार्वभौमिक और सार्वकालिक बनते चलते हैं। पाठक को यहां आकर लगता है कि उसके अंदर बचपन में सुनी हुई कथाएं जैसे जागृत हो उठी हैं, बस पात्र और परिस्थितियां बदल गई है। कथाओं की किस्सागोई और लोककथात्मक शैली के कारण पाठक को लगता है कि वह कथा पढ़ नहीं रहा, सुन रहा है। स्वयं प्रकाश खुद भी इस बात को स्वीकार करते हैं- ‘‘तो बहुत मोहब्बत के साथ पाठकों के समक्ष अपने समय की आधुनिक लोककथाओं की एक बानगी हाजिर करता हूं।’’  
चिर-परिचित लोककथा शैली- एक था राजा, खापरिया चोर या एक थी बुढि़या.....। इसी शैली से इस कथा संग्रह की सभी कथाएं शुरू होती हैं। जो इन कथाओं को स्थान-विशेष से निकाल कर निर्पेक्ष बना देती हैं। ज्वलंत मुद्दे पर लिखी हुई कथा भी सार्वदेशिक और सार्वकालिक बन जाती है। संग्रह में मौजूद ‘जंगल में दाह’ कथा में जंगल पर अतिक्रमण और आदिवासियों की संस्कृति एवं संस्कारों की क्षति को महसूस किया जा सकता है। इस कथा का मुख्य पात्र ‘मामा सोन’ सम्पूर्ण आदिवासी संस्कृति का प्रतीक है। किसी देश या क्षेत्र विशेष का आदिवासी ही नहीं, पूरे विश्व में फैली आदिम संस्कृति को बचाए रखने वाले इस समुदाय के लुप्त होते आवास और जीवनरक्षक साधनों के विनाश को बयां करती यह कथा विकासशील सभ्यता की बर्बरता का सामने लाती है। कथा का कथ्य वर्तमान परिस्थितियों का उठाता है मगर पढ़ते वक्त ऐसा महसूस होता भी होता है कि यह प्राचीन समय की कथा है, जिसको सदियों से बच्चे सुनते आ रहे हैं और मानो इस कथा की लय में जंगल की समस्त हलचल उनकी आंखों के आगे नाचने लगती है। इस कथा के अंतिम पड़ाव पर आते हैं तो लगता है लोककथा शैली पूरे शबाब पर आ खड़ी होती है- ‘‘लेकिन कमीने जाते-जाते जंगल में आग लगा गये।/ वन के पशु-पक्षी और वनवासी राजा की फौज से तो टक्कर ले सकते थे, लेकिन अग्नि देवता के आगे उनका कोई बस नहीं चल पाता था।/अफसोस कि न मामा सोन को बचाया जा सका न उनकी धनुर्विधा को। जो वहां बचा वह बस राख ही राख थी। राजकुमार का महल भी जलकर राख हो गया था। राजा और उसके वफादार सैनिक भी।/कहने वालों ने कहा कि बरसात के बाद वहां वन्य वनस्पति और ज्यादा लहलहाकर फूटेगी। कहने वालों ने यह भी कहा कि वनवासियों के बीच में से ही एक दिन फिर कोई मामा सोन जन्म लेगा।/ऐसा हुआ या नहीं, पता नहीं।’’  
यहां आकर पाठक इस कथा के आगे की परिकल्पना करने को विवश हो उठता है। वह सोचता है कि जंगल फिर से हरा-भरा होगा या नहीं। वह चिंतित होता है कि क्या फिर से ‘मामा सोन’ जन्म लेगा तथा तीर-कमान चलाना सिखाएगा। वह नतीजा निकालता है कि वनवासी संस्कृति फिर से विकसित होगी तथा वन्यप्राणी निर्भय विचरण करेंगे।
पाठक का पुष्पक विमान जब स्वयं प्रकाश के कथा-जगत मंे उड़ता हुआ ‘कानदांव’ कथा के दरवाजे आता है तब वह ऐसे भारत में पहुंच जाता है जहां दोस्ती और दुश्मनी तथा छल एवं कपट होते हुए भी मानवता जिंदा है। उसके मन और बुद्धि दोनों दैहिक पलायन करके सामाजिक समरसता में गोते लगाने लगते हैं। साम्प्रदायिकता रूपी ज्वाला की लपटों में झुलसते हुए समाज के अंदर स्थापित पाठक बनिए और पठान की दोस्ती एवं खेल-खेल में होते समझौते का दृश्यावलोकन कर एकबारगी मानो उसी दुनिया में चला जाता है। इस कथा के संवाद तो पाठक को पुरखों के वार्तालाप कौशल तक पहुंचा देते हैं- ‘‘ये भी कोई पूछन की बात है? -पठान तुनककर बोला।/मुझे तो नहीं लगता कि तू कुश्ती लड़ना जानता है।/कैसे नहीं जानता?/जानता है तो बता तुझे कौन-कौन-से दांव आते हैं?/पठान को जितने दांव आते थे, सब उसने गिना दिए, लंगी, घिस्सा, गरदनिया, कलाई तोड़, धोबीपाट, रानबंदी और भी कितने ही बनिया आंख मूंदे सुनता रहा। फिर बोला- और?/और क्या?/और नहीं आता? ये तो मुझे भी आते हैं।/पठान क्या बोलता? और तो उसे कोई दांव नहीं आता था। दिमाग पर जोर डाला। पर कुछ सुझा ही नहीं।/तब बनिया बोला, मुझे एक दांव और आता है।/कौन-सा?/कानदांव, तुझे आता है?/कानदांव? ये क्या होता है?’’ 
कथा ‘उज्ज्वल भविष्य’ बड़े-बड़े बिजनस ग्रुप के मालिकों की दोगली नीति और बेरोजगार युवा के भटकाव एवं टूटते आदर्शों की जीवंत दस्तावेज है। दिखावे की सभी झालरों के बीच से झलकती हुई बेईमानी की हकीकत और अपने अंदर बसाई हुई ईमानदारी को त्यागने का मानस बनाता व्यक्ति इस कथा को संजीदा कर देता है। एक बेहद गंभीर मुद्दे को लेकर चली कथा ‘प्रतीक्षा’ में पूंजीवादी-युगीन बुद्धिजीवी की स्थिति और आम-आदमी का सनातन सत्य व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। कथान्तर्गत सेम्युअल बेकेट का नाटक ‘वेटिंग फाॅर गोडो’ का मंचन किया जाता है। इस नाटक का एक पात्र एस्ट्रागाॅन, सबको झकझोर कर रख देता है। तृतीय विश्वयुद्ध के समय का यह पात्र आज भी उसी स्थिति में है, यह पात्र आम-आदमी का प्रतीक है। यह होनी-अनहोनी सभी का भोक्ता हैै, जो बेकेट के समय में भी व्यवस्था की मार झेल रहा था और आज भी झेल रहा है लेकिन फिर भी जी रहा है। इस कथ्य के निचोड़ को कथा के अंतिम पड़ाव पर महसूस किया जा सकता है- ‘‘सेम्युअल बेकेट एक घुटना मोड़े सिर झुकाए बैठे थे। बेहद उदास। धूसर। ध्वस्त। निरर्थकता बोध से लथपथ। आधी सदी पहले मैंने जो लिखा, कम्बख्त अभी तक असंगत-अप्रासंगिक नहीं हुआ! विज्ञान!! प्रगति!!! करोड़ों लोग तो आज भी गोडो की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं! गोडो- जिसे आज तक किसी ने नहीं देखा! एक ऐसी सड़क पर जो कहीं नहीं जाती! और एक ऐसे पेड़ के नीचे जो कभी नहीं फलता, उल्टे सूखता जाता है!/....और नौजवान लड़के-लड़की!!’’ 
इतने जटिल विषय को लोककथात्मक शैली में कहने के कारण ही पाठक इतनी आसानी से इसे आत्मसात कर पाया है। सदियों के अंतराल के बाद क्या-कुछ बदला है और क्या-कुछ जस का तस है, यह बताना इतना आसान नहीं होता। मगर कथा कहने की इस सरल शैली के कारण ‘वेटिंग फाॅर गोडो’ जैसे क्लिष्ट नाटक का कथ्य भी बोधगम्य बन गया। यह स्वयं प्रकाश की कारीगरी के कारण संभव होता है।
‘बिछुड़ने से पहले’ एक ऐसी कथा है जिसमें बाहरी बदलाव तो दिखाई देते हैं मगर स्थितियां जस की तस बनी हुई हैं। कच्ची पगडंडियों की जगह अब सड़क बनने लगी है और उनके आस-पास भी बहुत-कुछ बदलने लगा है मगर इन सुविधाओं के साथ ही बहुत-सी मुसीबते भी आती जा रही हैं।
एक कथा हम सभी बचपन से सुनते आ रहे हैं कि शिव और पार्वती दोनों धरती पर परिभ्रमण करते रहते हैं। वे जायजा लेते रहते हैं कि कहीं कोई दुखी तो नहीं है। यदि कोई समस्या में होता है तो पार्वती उसकी समस्या का समाधान करने हेतु शिव से आग्रह करती है। इसी किस्सागोई को माध्यम बनाकर स्वयं प्रकाश द्वारा लिखी गई कथा ‘गौरी का गुस्सा’ है। इसमें रतनलाल अशांत नामक पात्र के माध्यम से अनायास ही मिली सुविधाओं का उपभोग कर भी संतुष्ट न हो पाने का दर्द है तो वहीं उसमें और अधिक पाने की लालसा का बखान किया गया है। हम उसी सुविधा का समुचित उपभोग कर सकते हैं, जिसको हमने काफी मेहनत से जोड़ा है। उसी को पाकर संतुष्ट होते हैं। व्यवस्था की चक्की में पिसता हुआ तथा अपने जाल में फंसता हुआ आदमी समस्त दोष परिस्थितियों के मत्थे मंढ़कर खुद अपना पल्ला झाड़ना चाहता है मगर अधिक पाने की चाह फिर भी उसका पीछा नहीं छोड़ती। जैसा भी है, उसमें व्यक्ति संतुष्ट नहीं और दान में मिली सुविधा को भोग नहीं सकता। इसीलिए वह और अधिक विचलित है। 

समय के साथ जो व्यक्ति स्वयं को बदल नहीं पाता वह सभी काम कर लेने की क्षमता रखने के बावजूद भी खुश नहीं रह पाता। ‘मंजू फालतू’ कहानी में इसी पीड़ा को व्यक्त किया गया है। मंजू जमाने से दो कदम आगे चलने वाली लड़की है, जिसके हौंसले बुलंद और कार्यशैली चुस्त। जिसने खुद अपने जीवन को संवारा और एक अदद मुकाम हासिल किया। मगर उस सक्षम लड़की को भी शादी के बाद सोचना पड़ा- ‘‘बड़े-बड़े सपने न वहां थे न यहां हैं। उसके जैसी लड़की गरम दाल-भात या आरामदेह चप्पल जैसी चीज के आगे क्या सपने देखे? लेकिन नितिन का घर? तो क्या यह उसका घर नहीं? यह घर उसने नहीं बनाया। रेडीमेड कपड़े या खाने जैसा है। उसे मिल गया है। फिट भी नहीं है। कहीं से ढीला है कहीं फंसता है। अल्टर करने का टाइम भी नहीं है। करेगी कभी टाइम मिला तो।’’  शादी के बाद बच्चे और फिर गृहस्थी की जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेही में अपने ही द्वारा हासिल मुकाम का त्याग।
मंजू नौकरी छोड़ने के बाद घर में रह रही है। बाहर की दुनिया बड़ी तेजी से बदलती जा रही है। तकनीक के पीछे भागता इंसान खुद के जीवन को पीछे छोड़ता जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय पहचान की अंधी दौड़ में उलझा व्यक्ति घर-परिवार की उपेक्षा करता जा रहा है। इसी वजह से वह उन रिश्तों के प्रति फिर से सोचने हेतु बाध्य हो जाती है, जिन रिश्तों के अबाध निर्वाह निमित्त कभी उसने सारी खुशियां तजी थी- ‘‘कोई अपना नहीं होता। न घर, न पति, न बच्चे। अंत में अपनी अकल और अपने हाथ-पैर ही काम में आते हैं।’’ 
अब मंजू घर में फालतू होती जा रही थी। अब उसकी जरूरत न दोनों बेटियों की थी और न ही पति को। वे सभी अपनी दुनिया में व्यस्त थे। मंजू अपने-आप को फिर से अद्यतन करने लग गई। वह बाहर जाती, नई तकनीक के साथ माथा-पच्ची करती, नौकरी के लिए आवेदन करती परंतु बावजूद सबकुछ, उसके संस्कार पीछा करते रहते। मानसिक द्वंद्व उसे बेचैन रखता- ‘‘मंजू को लगा वह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही है। समय उसके पक्ष में नहीं है। उम्र शत्रु बन गयी है। उसका दिल बुझने लगा। डिप्रेशन रहने लगा। वह इतनी जल्दी बूढ़ी और कमजोर और पराश्रित नहीं होना चाहती थी, उसे निकम्मा और निठल्ला होकर जीना मंजूर नहीं था। वह अपने ही घर में अपने ही पति और बच्चों की उपेक्षा और दया और उपहास की पात्र नहीं बनना चाहती थी। वह चीजें रखकर भूलने लगी। सनकने लगी। घुटने लगी। टूटने लगी।’’ 
इस कथा की नायिका मंजू का दर्द एक अकेले व्यक्ति का दर्द नहीं है। इसमें पिछले 25-30 वर्ष का बदला हुआ इतिहास है। इन वर्षों में तकनीक ने इतनी उन्नति की है कि आज का बच्चा सहजता से यह मान ही नहीं पाता कि 25 वर्ष पहले बिजली, फोन, टीवी, कम्प्यूटर आदि तकनीक-सुविधाओं के अभाव में भी व्यक्ति जीवित था। खास बात है कि इस कथा में कहीं भटकाव नहीं है। इतनी सहजता से कथा-नद में बहता हुआ मन किनारे पर आ जाता है कि पता ही नहीं चलता। मगर किनारे पर बैठकर वह सोचने को मजबूर हो जाता है कि मंजू का क्या आगे हुआ होगा। वह अपने आसपास मंजू का अस्तित्व खोजने की कोशिश करता है। कथा एक दिशा में चलती है, इसलिए पाठक कथा को पूरी करने के बाद भी कुछ दूर उसी लय में चलता जाता है। यहीं आकर लेखन की सार्थकता सिद्ध होती है।
‘नाचने वाली कहानी’ यह एक दिलस्प दास्तान है। जैसलमेर का नाचना शहर और स्थानीय लोगों के विशेष उच्चारण के कारण दिल्ली से आया गुप्तचर अधिकारी नाचना नाम के चक्कर में उलझा रहता है। इस संग्रह की ‘हत्या-1’ तथा ‘हत्या-2’ दोनों ही कथाओं में बच्चों की इच्छाओं, उनके मीठे सपनों, उनकी स्वछंदता, उत्सुकता और सर्वग्राह्य मानसिकता पर लगी पाबंदी को समेटा गया है। पहली कथा में सर्कस देखने की उत्सुकता और सर्कस से लौटने पश्चात के मनोविज्ञान को समझा जा सकता है। पिंजरे में बंद शेर को देखकर बच्चों के मन में शेर की आजादी को खत्म करने का दुख हमला करता है। बच्चों के मन में दहाड़ें भरता जंगल का शेर मौजूद रहता है परंतु सर्कस में जब वे लोहे के जंगल में बंधा हुआ शेर देखते हैं तो मानो उनके अंदर अवस्थित शेर मर-सा जाता है।
संग्रह की एक कथा है- ‘बाबूलाल तेली’। सामान्य सामाजिक-व्यक्ति अपने जैसे ही किसी दूसरे व्यक्ति पर होते अत्याचार को देखकर तिलमिलाता है मगर कुछ कर नहीं पाता और जाति जैस बंधनों  के आगे घुटने टेक देता है। इस कथा में बाबूलाल एक सामान्य इंसान है। वह किसी जाति-मजहब की पाबंदियों में घुटना नहीं चाहता मगर तेली समाज उसे बलि का बकरा बना ही देता है।
इस संग्रह की अंतिम और लम्बी कहानी ‘बलि’ चिरपरिचित लोककथा अंदाज से शुरू होती है- ‘‘घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गांव था। साल, शीशम, आम, कटहल और महुए के पेड़। ये बड़े-बड़े पेड़। पेड़ के नीचे खड़े होकर एकदम ऊपर देखो तो सूरज न दिखाई दे। चारों तरफ धान के खेत, छोटे-बड़े पोखर और कुछ दूर इच्छा नदी। लकड़ी-मिट्टी-घास-गोबर के मकान और केले के पेड़, लौकी-कद्दू की बेलें और बैंगन-टमाटर की बाड़ी। हाथ-हाथ भर के काले बिच्छू और चार-चार गज के जहरीले सांप। पोखर मे कूदती-फांदती मछलियां और चूल्हे पर चढ़ी काली हांडी में खदबदाता भात।’’  
फिर गांव में बदलाव शुरू होते हैं। दबे पांव शहर गांव में आने लगता है। जमीन, फल, सब्जी, अनाज, दूध सभी अच्छी चीजों पर साहब लोगों का कब्जा होता जाता है। गांव में भूख पसरने लगती है। पैसे हैं मगर स्वछंदता खत्म होती जा रही है। छोटे-छोटे बच्चे साहबों के घर मजदूरी पर जाने लगे हैं। उनके पिता शराब के नशे में पड़े रहते हैं और मां पूरे दिन खटने के बाद भात की व्यवस्था बैठाती हैं। इन्हीं घरों में से निकलकर एक लड़की साहब के यहां नौकरी करती है। जमीन कारखाने के भेंट चढ़ गई, मुआवजा भी नहीं मिला और ऊपर से घर की खस्ता हालत। जो भी कुछ पास था वह कोर्ट-कचहरी के चक्कर में खत्म हो गया। लड़की सोचती है कि ये लोग बाहर से आए, उसके गांव को लील लिया और उन्हीं को मूर्ख समझते हैं। उसने निणर्य लिया- ‘‘वह इसी मामी के यहां काम करेगी। लेकिन दिखा देगी कि जो-जो और जैसे-जैसे मामी खुद करती है और दूसरी मामियां करती हैं.....वह भी कर सकती है। बल्कि उनसे भी अच्छा। घर में जितने भी काम होते हैं- खाना पकाना, सीना-पिरोना, काढ़ना-बुनना, बोलना-चालना, लिखना-पढ़ना....वह सब सीखेगी... इन्हीं से सीखेगी और एक दिन इन्हीं से अच्छा करके दिखा देगी। हरदम हंसती रहेगी। कभी किसी बात की खुद से भी शिकायत नहीं करेगी। हंसी ओर सेवभाव यही उसके हथियार होंगे। और जिस दिन मामी मान जाएगी कि ये जंगली लोग भी उनसे किसी बात में कम नहीं, बस मौका मिलने की बात है....और जिस दिन मनुष्य की तरह व्यवहार करने लगेगी, जंगली लोगों से बराबरी का बरताव वह उसे उसके हाल पर छोड़कर अपनी दुनिया में वापस आ जाएगी। एक उन्मुक्त और उत्फुल्ल प्राकृतिक दुनिया जिसका रूप, रस, गंध और स्पर्श मामी जैसों के नसीब में ही नहीं है।’’  
मगर लड़की का यह गुस्सा अधिक दिन नहीं रह सका। वह उन लोगों के साथ रहकर अपने भूत को भूलती जा रही थी और उसे लगता कि वह जिन लोगों से नफरती करती थी, अब उन्हीें लोगों के साथ जीने की आदी हो गई। अब वह चाहकर भी इरादे पर कायम नहीं रह पा रही थी- ‘‘लड़की को बहुत असहायता का अनुभव हुआ। उसे लगा, जैसे अब वह तैर नहीं रही है, सिर्फ बह रही है। बहना आसान है, तैरना कठिन.... लेकिन तैरने वाले को पता होता है कि उसे कहां जाना है अथवा कहीं नहीं जाना है। बहने वाले के हाथ में कुछ नहीं होता।’’  मगर यह बहता हुआ जीवन लम्बा रास्ता तय नहीं कर पाया। एक बार फिर से इस रास्ते में मोड़ आ गया। लड़की फिर से वापस अपने गांव-घर में लौट आई। अपने गांव की स्त्री की सामान्य स्त्री की भांति जीवन जीने को मजबूर हो गई। गृहस्थी की चक्की में पिसते हुए एक दिन खुद के जीवन को खत्म कर लिया। दुनिया उसे भूला देती है मगर यहां आकर पाठक को वह हर जगह नजर आने लगती है। अपने इर्द-गिर्द संघर्ष करती वह लड़की या यूं कहें कि एक व्यक्ति रोज टूटता है, मरता है, जिसे पाठक महसूस करने लगता है। स्वयं प्रकाश की यह कथा ‘झिंटिए’ की बात की भांति है जो किसी एक जगह या देश की नहीं बल्कि अनेक रूपों में सर्वत्र मौजूद होती है, भले ही स्वयं प्रकाश की पात्र लड़की का रूप बदल जाए। सिमटते हुए गांव, फैलते शहर और संक्रमित होती संस्कृति, उखड़ते हुए लोग स्वयं प्रकाश की कथाओं को जींवत बनाते हैं।
‘मेरी प्रिय कथाएं’ संग्रह की रचनाओं की भाषा और शाब्दिक शक्ति गजब की है। पढ़ते समय पाठक कहीं भी असहज महसूस नहीं होता। लय में चलते हुए शब्दों के अर्थ सहज ही समझ में आ जाते हैं। जिस प्रकार कथावाचक के सामने बैठा श्रोता मानसिक रूप से स्थान विशेष से ऊपर उठकर कथा-जगत में विचरण करने निकल जाता है, उसी प्रकार स्वयं प्रकाश की इन कथाओं को पढ़ता हुआ पाठक भी अशरीरी हो जाता है। 
स्वयं प्रकाश के अनुसार उन्होंने लोककथाओं का निर्माण किया है। वे इस कार्य में सफल भी हुए हैं मगर कुछेक जगह इस बात की कमी भी महसूस होती है। लोककथा में जो तारतम्यता और एकरसता होती है, वह यहां कहीं-कहीं टूटती महसूस होती है। मगर इन कथाओं को पढ़कर आनंदानुभूति होती है तथा साथ सामयिक तथ्यों का खुलासा भी होता है और यही चीज वर्तमान स्थितियों में साहित्य रचाव के लिए जरूरी है। 
तकनीकी युग में नई लोककथाएं भी चाहिए तो नया कलेवर भी। पात्र और कथातत्व दोनों ही समय के अनुसार होने की वजह से ‘मेरी प्रिय कथाएं’ संग्रह की कथाएं अधिक सार्थक बन पड़ी हैं। प्रूफ की कुछ कमिया कथा संग्रह में अखरती है खासकर प्रत्येक पृष्ठ पर दिया गया पुस्तक शीर्षक का गलत प्रयोग। परंतु यह कमी स्वयं प्रकाश की नहीं मानी जानी चाहिए। 
‘मेरी प्रिय कथाएं’ जैसे नायाब संग्रह को पढ़ते हुए पाठक निश्चित रूप से लोककथात्मक शैली को स्वयं के अंदर विकसित करता चलता है और उसका हृद्य लोक में आलोडित होता रहता है। संग्रह की रचनाएं लोककथात्मक शैली का नायाब उदाहरण मानी जा सकती हैं।

साक्षात्कार : प्रभा खेतान

राजस्थान पत्रिका, 23 सितम्बर, 2007


औरत कब आएगी पर्दे से बाहर

राजस्थान के विशेष संदर्भ में

 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


राजस्थान का नाम आते ही दूर-दूर तक फैला बालू का समुद्र स्मृति में आता है। इन बलुई लहरों से जूझता हुआ व्यक्ति पानी के समुद्र की कल्पना करता है। सुदूर दक्षिण में उठ रहे ज्वारभाटे को देखना चाहता है। दूर तक फैले धान के खेत, पंक्तिवार खड़े नारियल के पेड़, बंदरगाहों पर लदे बड़े-बड़ जहाज -उसके लिए यह सब परिलोक की कथा से कम नहीं होता। पुस्तकों में पढ़े हुए एवं स्क्रीन पर देखे हुए रूहानी दृश्यों की हकीकत से रूबरू होने की इच्छा के साथ यहां का वाशिंदा कश्मीर से कन्याकुमारी तक का पूरा भारत देखने को लालायित हो उठता है। जैसे-जैसे वह दक्षिण की तरफ बढ़ता है, उसके सामने एक नई दुनिया खुलने लगती है। बदलते हुए रंग, बदलता हुआ पहनावा, वहां की लोक संस्कृति। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आते हुए गांव, गांवों के किनारे पानी से भरे तालाब। हरियाली के बीच से निकलती हुई पगडंडियां, जो गांव को खेतों से जोड़ती हैं। मवेशियों की कतारें, भिनभिनाती हुई मक्खियां। नमी लिए हुए हवा, जो राजस्थान के व्यक्ति को उमस का अहसास कराती है। वह तेज बहती हुई शुष्क हवा का आदी है। यहां का चिपचिपा-सा मौसम अजीब अनुभव देता है।
दक्षिण में विचरण करने वाला वह व्यक्ति यदि स्त्री है तो वह एक और बात बड़ी शिद्दत से महसूस करती है। चूंकि वह स्त्री है, इसलिए वहां की स्त्री पर उसकी दृष्टि सबसे पहले जाती है। खेत-खलिहानों में काम करती हुई स्त्री, जिसके कंधे पर लहराता पल्लू, खुला सिर और बेबाक बोलते होंठ, आंखों में तैरती हुई तरल हंसी। यह सब अंदर तक हिला देता है। उसे छुईमुई की तरह आंचल में सिमटी हुई स्त्री का स्मरण हो आता है, जिसे वह पीछे छोड आई है। दरवाजे तक छोड़ने आई उसकी मां और पर्दे में से झांकती नम आंखें। काश! उसकी मां भी यहां की स्त्री की भांति खुले सिर बाहर निकल पाती।
यहां पढ़ी-लिखी शहरी स्त्री की बात नहीं की जा रही। यह गांव की स्त्री है, जो खेतों में मेहनत-मजदूरी से जीवनयापन कर रही है। महज दस प्रतिशत स्त्रियां कंधे पर लहराता हुआ पल्लू लेकर चलती हैं। इससे स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। जब तक मेहनकश गांव की स्त्री पर्दे से बाहर नहीं आ जाती, तब तक वह अपने अधिकारों से महरूम रहेगी। मैं यह नहीं कहना चाहती कि जो पर्दे से बाहर है, वह मुक्त स्त्री है। लेकिन पर्दानसीन से वह कहीं अधिक स्त्रतंत्र है। कम-से-कम वह अपनी खुली आंखों से दुनिया को देख तो पाती है। कुछ बोल तो पाती है। पूरे बोझ के साथ चलती हुई भी खुले में सांस तो ले सकती है।
हालांकि पूरे विश्व की स्त्री को एक साथ संघर्ष करना होगा। मगर स्थानीय स्थितियों से अलग-अलग ही निपटना होगा। बात राजस्थान की करें तो सबसे पहला सवाल हमारे सामने आता है वह पर्दा प्रथा का ही है। पर्दा सब समस्याओं का हल तो नहीं मगर स्त्री के व्यक्ति निर्माण की लड़ाई में थोड़ी सहूलियत हो जाएगी।
इतिहास में झांकें तो ग्रामीण संस्कृति में पर्दा प्रथा के संकेत नहीं मिलते। कृषि और पशुओं पर निर्भर ग्रामीण समाज में स्त्री और पुरुष साथ काम करते। एक से अधिक पत्नियां रखने की परम्परा भी वहां नहीं मिलती। पति के मरने के बाद पत्नी दूसरा विवाह कर लेती थी। अमुमन देवर के साथ ही नाता होता। कभी-कभी पति के बड़े भाई के साथ टैग की भांति स्त्री चस्पा कर दी जाती। हां! वहां भी स्त्री इतनी तो स्वतंत्र नहीं थी जितना पुरुष, मगर वह एक व्यक्ति के रूप् में अपने को पहचानती थी।
सामंतकाल तक आते-आते ग्रामीण संस्कृति को सामंती परम्पराओं ने घेर लिया। अब स्त्री न सिर्फ दोयम दर्जे पर चली गई, बल्कि अब तो वह मात्र वस्तु के रूप में पहचानी जाने लगी। कृषक वर्गा की बेटी पर अब खतरा मंडराने लगा और खतरा था सामंती लोलुपता का। रजवाड़ों के हरमखानों में भरी हुई हजारों स्त्रियों का सा नारकीय जीवन कब किस लड़की के हिस्से में आ जाए, कुछ पता नहीं। इस संकट से निपटने के लिए सबसे पहले जवान होती बच्ची को शादी की ओर धकेला गया तथा फिर उसे पर्दे के भीतर रखा गया। चारदीवारी में बंद किया गया। सुरक्षित तो वह अब भी नहीं थी, क्योंकि सामंती रईसों की पहुंच हर जगह थी। 
काश! स्त्री को डरने के बजाय तब लड़ना सिखाया गया होता तो वह अपनी अस्मिता बचा पाती। उस समय अंधेरी खोहों में बंद की गई स्त्री आज भी खौफजदा है। सामंती संस्कार समाज की जड़ों तक समा गए हैं। आज का ग्रामीण परिवेश इन्हीं सामंती संस्कारों से घिरा हुआ है।
राजस्थान में स्त्री शिक्षा के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं। रोजगार के लिए स्त्री घर से बाहर भी निकल रही है। वह खुले सिर सड़कों पर चलती हुई नजर आ रही है, मगर कितनी प्रतिशत महिलाएं बाहर निकल पाई हैं। हालांकि मां-बाप का रवैया बदला है और लड़की को पढ़ाने के लिए होने वाली आनाकानी कम हो रही है। परंतु अंकुश अब भी है..... भले ही विषय चयन का हो या फिर स्कूल, काॅलेज चयन का। हां, कभी-कभी तो अध्ययन के बीच में ही शादी का संकट भी सामने आ खड़ा होता है। और यहां आकर अध्ययन की निरंतरता पूर्ण रूप् से ससुराल पक्ष के खाते में चली जाती है। उनकी जो इच्छा होती है, वही निर्णय मान्यता प्राप्त होता है।
कई बार तो दृश्य बड़े अजीब बन पड़ते हैं। घर वाले चाहते हैं कि हमारी बहू पढ़े। लेकिन परम्पराओं को भी निभाए। वह स्कूल या काॅलेज की और निकलती है। यूनिफाॅर्म की पल्ला उसके कंधों के बजाय सिर पर होता है और लम्बा-सा घुंघट ताने वह स्कूल-काॅलेज के दरवाजे तक जाती है। छुट्टी होने के बाद उसी प्रक्रिया को दोहराया जाता है। छह घंटे अपने सहपाठियों के साथ खुले सिर पढ़ने वाली वह लड़की स्कूल-काॅलेज के दरवाजे पर आते ही वह घूंघट के साथ फिर बहू बन जाती है।
घर आकर सास के हुकम का पालन शुरू हो जाता है और घर के सारे काम निपटाने का जिम्मा भारी बन जाता है। वैवाहिक दायित्व के बीच पति भी कहीं आड़े आता है तो दूसरी तरफ उसका परिवार भी। जिसे वह नजरअंदाज नहीं करना चाहती। एक तरफ कैरियर तो दूसरी तरफ परिवार -इस संघर्ष की चक्की में पिसती हुई वह कहां तक की यात्रा कर पाएगी?
सिर्फ पढ़ने वाली लड़की ही नहीं, कामकाजी महिला को भी इन्हीं स्थितियों में जीना पड़ता है। लम्बा-सा घूंघट डाले वह घर से बाहर निकलती है। यदि उसका कोई सहकर्मी उसके ससुराल का है, या फिर उसका कार्यस्थल ससुराल या आसपास है, तो फिर पूरे दिन साड़ी का पल्लू बड़े ही करीने से सिर पर सजाए रखना होता है। स्कूल, बैंक, डाकघर या फिर अन्य कार्यालयों में कितनी ही बार घरेलू स्त्री की तरह, साड़ी के पल्लू के साथ मशक्कत करती हुई कर्मचारी महिला देखी जा सकती है। बार-बार उस पल्लू को सहेजना शारीरिक कष्ट नहीं परंतु मानसिक रूप से बहुत दुखदायी होता है। उसकी मानसिक ऊर्जा का निकास अपने स्वतंत्र सहकर्मी से कहीं अधिक होता है।
जब शिक्षा से जुड़ी या कामकाजी स्त्री की यह स्थिति है, तब खेतों में काम करने वाली स्त्री की स्थिति क्या होगी? राजस्थान की साठ प्रतिशत स्त्री कृषि व्यवसाय से जुड़ी है, उसके मात्र हाथ ही पर्दे से बाहर रहते हैं। संयुक्त परिवार में तो स्थिति और भी जटिल बन जाती है। वहां ससुर और जेठ, दो रिश्ते ऐसे हैं, जो बोलने पर भी पाबंदी लगाते हैं। नई बहू को तो पूरा दिन बिना बोले ही बिता देना पड़ता है। यदि किसी काम के लिए पूछना भी हो तो वह फूसफूसा कर ही पूछ पाती है। हंसना तो मानो वह भूल ही जाती है।
उस पर्दे में वह न तो दुनिया देख पाती है और न ही दुनिया उसे देख पाती है। एक अनजान दुनिया में वह अनजान बनकर जीना सीख जाती है। यदि उसे यह घूंघट नहीं तानना पड़े तो कार्य करने की क्षमता भी बढ़ सकती है और जीने की लालसा भी। कई बार इस घंूघट के चक्र में परिवार को नुकसान भी उठाने पड़ते हैं। यदि बूढ़ा ससुर एवं बहू घर पर अकेले हैं तो वह बहू उस जर्जर व्यक्ति को न ही तो कुछ पूछ पाएगी और न नही बता पाएगी। ससुर यदि अंतिम सांसे भी गिन रहा है तो वह पास जाकर देख नहीं पाएगी कि क्या हो रहा है, स्थिति कैसी है। यहां यह कुछ प्रतिशत के अपवाद को छोड़कर बात की जा रही है।
ऐसी बात नहीं कि इस प्रभा को तोड़ने के प्रयास नहीं किए जाते। नई-नई शादी किए हुए पति-पत्नी इस प्रथा का विरोध करते हैं, मगर परिवार एवं समाज उनके विरोध में उतर आते हैं। इस संघर्ष में कुछ ही दम्पत्ति डटे रह पाते हैं और अपना मुकाम हासिल कर पाते हैं। बाकी दम्पत्ति व्यवस्था के आगे घुटने टेक देते हैं और सुनहरे भविष्य को इस पर्दे रूपी अंधेरी कोठरी में बंद कर देते हैं। कुछ दम्पत्ति इस संघर्ष की जद में नहीं आना चाहते और गांव से शहर की तरफ पलायन कर जाते हैं। 
परंतु, शहर में खुला जीवन जीने वाली वह स्त्री जब छुईमुई बन जाती है, तब शहर में ससुराल पक्ष को कोई व्यक्ति आ पहुंचता है। जैसे वह स्त्री न हुई कोई हाडमांस की पुतली हुई।
काश! यहा ग्राम्य वधु भी अपनी खुली आंखों से दुनिया को देख पाती। इस व्यवस्था से सवाल कर पाती। उसका ससुर कभी तो उसे बेटी कह कर सिर पर हाथ रख पाता। सुख-दुख की बातें करता। बहू बेटी बनती और ससुर बाप! 
कुछ भी हो, व्यवस्था की अंधी गलियों में स्त्री का जीवन खो गया है। व्यवस्था की इन कमजोर कडि़यों को तोड़कर फेंकना होगा, संस्कृति की सुंदर लडि़यों से इसे फिर से गूंथना होगा। स्त्री को जागना पड़ेगा तभी वह पर्दे से बाहर आएगी।
क्या बेहतर नहीं होगा कि पुरुष उसके इस संघर्ष को कुछ कम करे!

मलयाळम कहाणी


भींत

- माधवीकुट्टी 


माणक, मासिक, जुलाई 2013


दिनुंगै कांम माथै जांवणै सारू कार मांय बैठती बगत मुड़नै म्हैं कैयौ, ‘‘आज शेयर होल्डरां री अेक बैठक है। म्हंनै बावड़नै मांय अंवार हुयसी।’’
कुण-ई इण बात री गिनार नीं करी। म्हंनै आस ईज नीं ही कै कुण-ई ध्यांन देयसी। फगत इंयां-ई कैय दीन्हौ हौ। अेक बांण भुगताई। कार मांयनै बैठनै म्हैं फेरूं खुद रै कड़ूम्बै नै ओळख्यौ। म्हारी जोड़ायत पोती रै हाथ री आंगळियां रा नख काटै ही। बेटी माळी नै रोळा करै ही। बडोड़ै छोरै री जोड़ायत आपरी कंवळी आंगळîां सूं मेज मांथली फिलमी मैगजीन रा पाना पळटै ही। दूजौ बेटौ रेडियै सूं क्रिकेट मैच री कमेंटरी सुणै हौ..... नाऊ कम्स मांकड.....
दोनूं पासै गोळ बत्यां लागेड़ौ लाॅन लांघनै कार रोड कांनी मुड़ी। ‘‘कित्ती बरियां म्हैं इण धवळै गुलाब री डाळîां नै संवारणै सारू कैयौ! बरियां-बरियां कैवणै पछै-ई......’’
म्हैं अेक सिगरेट चासी अर सीट माथै पसरतां थकां आपरै कड़ूम्बै पेटै सोचणै ढूक्यौ। बिना किणी कारणै सूं म्हैं क्यूं आं सगळा सूं अळगौपणौ मैसूसूं? वांरै साथै बैठ्यां म्हंनै इंयां लागै कै म्हैं आंरै भेळौ क्यूं हुयौ हूं? जांणै मारग री चूंधी खायनै दूजी ठौड़ पूगग्यौ हुवूं। वा मोटळी लुगाई, जिणरै कांन मांथला बाळ पाका हुवणै लाग्या, बूझती हुयसी, दही री खटास ठीक है नीं!
करड़ी बोली वाळी छोरी रसोइयै नै ललकारती हुयसी, ‘‘म्हैं कित्ती बरियां कैयौ, मटन मांय लसण नीं गेरîाकर। थंनै बरियां-बरियां कैवणै पछै-ई.....’’
मेज रै पाखती घुंडीवाळै बाळां रौ अेक आदमी बैठ्यौ हुसी, जिणरौ रूप लुगाई सूं मेळ खावै। वौ कैंवतौ हुसी, ‘‘रामा, पांणी ल्याव।’’ जिवणै पसवाड़ै बैठी गोरीगट्ट छोरी रंगीजेड़ा नखां वाळै हाथां सूं चावळां रौ अेक-अेक दांणौ चकनै खावती हुसी....। वठै-ई म्हंनै अेकलपौ लागै। म्हैं क्यूं इणांरै बिच्चै मेज रै पाखती बैठ्यौ हूं? दमघूटू अेकभांत लय हीण, जांणै पिकासौ रै करड़ै अर आडी-टेढ़ी लकीरां सूं लड़ालूम कैनवास माथै रवि वर्मा री जूंनी सिस्टी नै लायनै ओपमा दीन्ही हुवै।
डावै पासै बैठी वा अधखड़ लुगाई फेरूं बूझै, दही री खटास ठीक तौ है नीं!
बोलबालौ रैवणै सूं कांम नीं चालसी। औ तौ म्हारौ कड़ूम्बौ है, म्हारै जीवण रौ फळ। बरसां-बरस इणसूं अटकाव नै अळगौ करनै, चिलकायनै, सिणगारनै म्हैं म्हारै कड़ूम्बै नै इण भांत संवारîौ है कै अबै कुण-ई नीं कैयसी कै औ कड़ूम्बौ पैलां जैड़ौ है। इण बदळाव माथै म्हंनै गिरबौ करणौ चाहीजै। म्हैं खासौ तौ नीं, कमती ई मैसूसौ है। पण अबै वा गिरबै री रुणक चांणचकै मांदी पड़गी। गिरबै री तौ बात-ई छोडौ। औ म्हारौ कड़ूम्बौ है? मक्खण रै रंग री साड़ी पैहरîा, आपरै टाबरां अर पोती-पोत्यां सूं बिचाळै-बिचाळै विदेसी भासा मांय बतळावण करणै वाळी अधखड़ लुगाई रै इण पैरापै मांय-ई लगैटगै तीस बरसां मांय बदळाव आग्यौ। पछै-ई आ वा-ई माधवीकुटटी है, जिणनै ब्यावनै म्हैं पैलपोत गाडी मांयनै बैठाई ही। म्हैं इण बात नै क्यूं भूलग्यौ?
वै दिन, बीतेड़ौ हरेक दिन- वै सैंग कित्ता छोटा, कित्ता कमती सबदां सूं भरîोड़ा हा! जीवण मांयनै आगीनै बधणै री आफळ करतै हरेक जवांन अर वींरी जोड़ायत री छेहड़ैबिहूणी आस-उम्मीदां।
छात माथै पीतळ सूं बण्योड़ै अकोड़ै माथै टांगीजै गाभै सूं बणाइजेड़ै पालणै नै हलांवता थकां माधवीकुटटी बूझै, ‘‘सुणौ, क्यूं नीं आपां इणरौ नांव भास्कर थरपां? आच्छौ नांव है नीं!’’ 
‘‘छिः! इण रै औ नांव फबै नीं।’’
‘‘मनोहर राखलां।’’
‘‘के?’’
‘‘मनोहर।’’
‘‘हां, ओ ईज आच्छौ नांव है।’’
‘‘लिली, कांईं मनोहर अबै तांणी नीं आयौ? साढ़ै आठ बजग्या?’’
‘‘नीं।’’
‘‘के वौ आवणै री कैयग्यौ हौ?’’
‘‘नीं।’’
आजकालै मनोहर घरां हफ्तै मायं च्यार दिन मोड़ै पूगै। बिक्री विभाग रै मैनेजर रै रूप मांय इण बरस प्रमोशन हुवणै रै पछै तौ लगैटगै। मनोहर रै दफ्तर मांय मोटर बिणज री उळझणां कारणै साल रै सरू मांय खासा लोगां नै राजी राखणां पड़ै। अैड़ा लोगां नै ग्रेच्युइटी अर दूजा भुगतानां रै पछै बाकी कर्मचारîां री तिणखा कमती पड़ जावै। मनोहर कैवै कै भारत मांय मजूरां नै बेसी पोमाइजै। इत्ती-सी उम्र वाळै मनोहर रै मूंडै सूं आ बात निसरी तौ म्हंनै दुख पूग्यौ। इण भांत राजावू सोच इण उम्र मांय नीं हुवणी चाहीजै। राजावू सोच पाळता बडेरा मिनखां नै माफ करीज सकै, वै तौ खिरता पांन हुवै। पण भविख मांय मनोहर नै लोग किंयां सैयसी?
कार थम्मी। म्हंनै तद-ई ठाह पड़îौ कै बिरखा हुवै। चपड़ासी छत्तौ लायौ। म्हैं सिर झुकावतौ कार सूं निसरîौ अर वीं बडै दफ्तर मांय बड़ग्यौ, जठै तीस बरसां सूं हाजरी बजावूं।
मांयनै हाॅल मांय अबै तांणी कुण-ई नीं पूग्यौ हौ। हां, क्लर्क पिल्लै जरूर कीं लिखै हौ। म्हैं इण संस्था मांय सैंग सूं बेसी नौकरी करी है, दूजी ठौड़ पिल्लै री है। अेक जमानै मांय म्हे दोनूं आंम्ही-सांम्ही बैठनै कांम करता। वीं बगत म्हैं इणनै ‘पिल्लै भाईजी’’ कैंवतौ। हवळै-हवळै म्हैं हाॅल छोडनै आगीनै बधग्यौ। ‘पिल्लै भाईजी’ बोल नीं जांणै कठै गमग्यौ। मिणत अर कीं भाग रै कारणै पैड़ी-पैड़ी बधाव हंुवतौ रैयौ अर अबै जायनै म्हैं इण बैंक रौ मैनेजर हूं। आज अेक रिपियै सारू ग्यारा पिस्सा टैक्स देंवणै वाळै बगत मांय-ई पिल्लै वा-ई कमती तिणखा गूंजा मांयनै घालनै घरै बावड़ै। वींरौ टकलौ सिर अर घंस्योड़ी खद्दर री बुरसट देखनै म्हंनै केई बरियां लाग्यौ, पिल्लै री इमदाद करणी चाहीजै। पण हिम्मत नीं करीजी। 
पिल्लै चोखी भांत कांम नीं करै। अठीनै-वठीनै देखनै सीधौ लोह रै गोळै मांय कूदणै वाळै गंडकै री भांत, बिना किणी फरक, बिना थकेलै, आगीनै बधणै री बिना कीं आफळ रै, पिल्लै अजै बैंक रै हाॅल मांय आपरी मेज धक्कीनै बैठ्यौ है। हुंसयार जवांन पिल्लै नै लारै छोडनै असिस्टेंट मैनेजर तांणी बणग्या। म्हैं पिल्लै री इमदाद किण भांत करतौ। के मलयाळी हुवणै रै नातै कै सरूवात मांयनै पिल्लै भाईजी कैवणै रै पेटै?
म्हैं कमरै मांय बड़îौ अर कोट नै भींत माथै टांग्यौ। मेज ऊपरां उण दिन रा अखबार धरîोड़ा हा। खास खबर, बैंकां सूं जुड़îोड़ी खबरां, लाल पेंसिल सूं चांकीजेड़ी ही। औ कांम असिस्टेंट मैनेजर रामचंद्रन करै। नौकरी मांय वींरौ प्रमोशन हाल-ई हुयौ है। पण हगीगत मांय रामचंद्रन बैंक रौ बिचाळौ बणग्यौ। पछै-ई, वीं मुधरै सुर वाळै जवांन रै कमरै मांयनै आयनै, वींरी हूंस देखनै म्हैं राजी हुय जावूं।
जंगळां माथै बिरखा री छांटां जोर दिखावणै लागी। म्हैं जंगळां नै खोल्या अर कुरसी माथै आ बैठ्यौ। बारै खासा हरîां पत्तां माथै बिरखा री बडी-बडी छांटां नाचै ही। म्हारौ मन चांणचकै-ई केई बरस लारै लांघनै पालक्काड रै अेक छोटै-सै गांव मांय पूगग्यौ, जठै झूंपड़ी रै कूंपलै सूं पांणी चूवै हौ। आंगणै मांय बासण भेळा हुयग्या हा। हरेक बासण मांय छांटां पड़णै री टणकार आवै ही। ‘‘नारायण कुट्टि दीदा फाड़नै के देखै? अठै आयनै पाठ बांच।’’
‘‘नारायण कुट्टि!’’ औ तौ बुलावणै रौ जूंनौ सबूत है। औ हेलौ वीं झूंपड़ी कै छप्परै सूं, जठै पांणी बरसै, पून रै अटावरैपणै सूं नाचता आम रा दरखत अर अंग्रेजी री पैली पोथी रै जमानै मांय हुवतौ। अै बोल आज कठै सुणीजै। बाळां नै अेक पासै जचायां, पतळी-सी, सांवळै रंग री, अेक मां आपरै बेटै नै हेलौ करै ही। अर.....
चांणचकै-ई दरुजौ खोलनै रामचंद्रन बड़îौ। ‘‘माफ करज्यौ, म्हंनै कीं कैवणौ है।’’ रामचंद्रन जंगळा ओढ़ाळ दीन्हा। आंगणै मांय खिंडतै पांणी नै देखनै रामचंद्रन चपड़ासी पेटै बड़बड़ावणै लाग्यौ।
‘‘म्हैं खोल्या हा, के केवणौ चावौ? आज री बैठक पेटै?’’ म्हैं बूझîौ।
रामचंद्रन नै बैठक रै पेटै-ई बतळावण करणी ही। ‘‘लारलै हफ्तै जिण लोह री फैक्टरी वाळां रिपिया उधार मांग्या हा, वींरी सरूवात दो-तीन लोगां मिलनै करी ही। वा फैक्टरी घाटै मांयनै चालै। म्हैं ठाह लगायौ है। वांनै उधार मत्ती देवौ, म्हारी तौ सल्ला है कै उधार मत्ती देवौ।’’
‘‘हां, म्हैं ध्यांन राखसूं। और कीं!’’
रामचंद्रन कीं कैवणौ चावै हौ। ‘‘इण बरस जकां रौ प्रमोशन हुयौ है, वांरी लिस्ट बांचनै सुणावूं। जे वीं मांयनै कीं बदळाव करणौ हुवै तौ। बिंयां बदळाव री दरकार नीं हुयसी। म्हैं खासा सोच-समझनै लोगां रा नांव मांड्या है......।’’
‘‘बांच...।’’
‘‘इण बरियां-ई पिल्लै रौ नांव नीं। अबकै पिल्लै रौ नांव जोड़ दै।’’
‘‘अरै, वौ बूढ़ौ क्लर्क पिल्लै। इणरी दरकार कोनी। वौ तौ आळसी है। म्हैं हरमेस सोचूं कै पिल्लै नै इस्तीफौ देवणै सारू कैवूं। वौ जाबक आळसी है।’’
‘‘नीं, इण लिस्ट मांय पक्कायत-ई पिल्लै रौ नांव हुवणौ चाहीजै।’’
‘‘ठीक है, पछै म्हंनै और कीं नीं कैवणौ।’’
रामचंद्रन गयौ परौ। बिना खुड़कै दरुजौ बंद हुयग्यौ। फेरूं म्हैं म्हारी मनगत मांय गमग्यौ। दिमागू दुख बधै हौ। शेयर होल्डरां री मीटिंग सूं पैलां नफै-नुकसांन रौ हिसाब त्यार करणै री भांत ईज आज म्हैं क्यूं खुद री जिंदगाणी रा काट्योड़ा बरसां रौ नफौ-नुकसांण जांचणै बैठग्यौ? नीं, म्हारै टाबरपणै मांय आज सूं बेसी मौज ही, किंयां? बगत री बखड़ी मांय दुखां रौ रंग फीकौ हुय जावै। फगत सुख रा छिण-ई चेतै रैवै। डील रै तौल मांय-ई फरक आ जावै। जका भलेरा कांम म्हैं नी करîा, अर जकी गळत्यां म्हैं करी, दोनूं मन नै आखतौ करै ही।
म्हैं कठै गळत हुयौ? भांत-भांत री उछाळ अर खुसियां रै पछै-ई म्हैं बेराजी क्यूं हूं?
मिनख हरमेस अेकलौ है। आपरै घेरै कुंडाळै मांय-ई वौ अेकलौ रमै। खुद रै अेकलपै रौ ग्यांन बधती उम्रवाळां मांय-ई नीं, सगळा मिनखां मांय हुवै। मिनखां रै बीचै रोजीनै केई छोटी-छोटी भींतां चिणीजै। रिपियै, रंगभेद, मनभेद री- अैड़ी केई छोटी-छोटी भींतां। वांनै तोड़नै प्रेम अर अपणापै रै मारग चालनै ईज जीवण रै छैहलै पूगीज सकै। पण, हरेक नै आपरै सवालां रौ उथळौ खुद मिलै। स्यात् वौ ईज उथळौ ठीक हुवै।
घरां बावड़नै म्हैं बिस्तरै माथै पसरतै थकां कैयौ, ‘‘माधवीकुट्टी, म्हैं नौकरी सूं इस्तीफौ देवणै री सोचूं।’’
‘‘क्यूं? कीं खास कारणै सूं?’’
‘‘कीं खास नीं, केई दिनां खातर गांव जायनै रैवणै री मनगत है। अबै आपां दोनूं बूढ़ा हुयग्या।’’
जोड़ायत कीं उथळौ नीं दियौ। पून रै अटावरैपणै कारणै जंगळै रा किंवाड़ भेड़ीजग्या। बारै बिरखा हुवै ही।