औरत कब आएगी पर्दे से बाहर

राजस्थान के विशेष संदर्भ में

 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


राजस्थान का नाम आते ही दूर-दूर तक फैला बालू का समुद्र स्मृति में आता है। इन बलुई लहरों से जूझता हुआ व्यक्ति पानी के समुद्र की कल्पना करता है। सुदूर दक्षिण में उठ रहे ज्वारभाटे को देखना चाहता है। दूर तक फैले धान के खेत, पंक्तिवार खड़े नारियल के पेड़, बंदरगाहों पर लदे बड़े-बड़ जहाज -उसके लिए यह सब परिलोक की कथा से कम नहीं होता। पुस्तकों में पढ़े हुए एवं स्क्रीन पर देखे हुए रूहानी दृश्यों की हकीकत से रूबरू होने की इच्छा के साथ यहां का वाशिंदा कश्मीर से कन्याकुमारी तक का पूरा भारत देखने को लालायित हो उठता है। जैसे-जैसे वह दक्षिण की तरफ बढ़ता है, उसके सामने एक नई दुनिया खुलने लगती है। बदलते हुए रंग, बदलता हुआ पहनावा, वहां की लोक संस्कृति। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर आते हुए गांव, गांवों के किनारे पानी से भरे तालाब। हरियाली के बीच से निकलती हुई पगडंडियां, जो गांव को खेतों से जोड़ती हैं। मवेशियों की कतारें, भिनभिनाती हुई मक्खियां। नमी लिए हुए हवा, जो राजस्थान के व्यक्ति को उमस का अहसास कराती है। वह तेज बहती हुई शुष्क हवा का आदी है। यहां का चिपचिपा-सा मौसम अजीब अनुभव देता है।
दक्षिण में विचरण करने वाला वह व्यक्ति यदि स्त्री है तो वह एक और बात बड़ी शिद्दत से महसूस करती है। चूंकि वह स्त्री है, इसलिए वहां की स्त्री पर उसकी दृष्टि सबसे पहले जाती है। खेत-खलिहानों में काम करती हुई स्त्री, जिसके कंधे पर लहराता पल्लू, खुला सिर और बेबाक बोलते होंठ, आंखों में तैरती हुई तरल हंसी। यह सब अंदर तक हिला देता है। उसे छुईमुई की तरह आंचल में सिमटी हुई स्त्री का स्मरण हो आता है, जिसे वह पीछे छोड आई है। दरवाजे तक छोड़ने आई उसकी मां और पर्दे में से झांकती नम आंखें। काश! उसकी मां भी यहां की स्त्री की भांति खुले सिर बाहर निकल पाती।
यहां पढ़ी-लिखी शहरी स्त्री की बात नहीं की जा रही। यह गांव की स्त्री है, जो खेतों में मेहनत-मजदूरी से जीवनयापन कर रही है। महज दस प्रतिशत स्त्रियां कंधे पर लहराता हुआ पल्लू लेकर चलती हैं। इससे स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। जब तक मेहनकश गांव की स्त्री पर्दे से बाहर नहीं आ जाती, तब तक वह अपने अधिकारों से महरूम रहेगी। मैं यह नहीं कहना चाहती कि जो पर्दे से बाहर है, वह मुक्त स्त्री है। लेकिन पर्दानसीन से वह कहीं अधिक स्त्रतंत्र है। कम-से-कम वह अपनी खुली आंखों से दुनिया को देख तो पाती है। कुछ बोल तो पाती है। पूरे बोझ के साथ चलती हुई भी खुले में सांस तो ले सकती है।
हालांकि पूरे विश्व की स्त्री को एक साथ संघर्ष करना होगा। मगर स्थानीय स्थितियों से अलग-अलग ही निपटना होगा। बात राजस्थान की करें तो सबसे पहला सवाल हमारे सामने आता है वह पर्दा प्रथा का ही है। पर्दा सब समस्याओं का हल तो नहीं मगर स्त्री के व्यक्ति निर्माण की लड़ाई में थोड़ी सहूलियत हो जाएगी।
इतिहास में झांकें तो ग्रामीण संस्कृति में पर्दा प्रथा के संकेत नहीं मिलते। कृषि और पशुओं पर निर्भर ग्रामीण समाज में स्त्री और पुरुष साथ काम करते। एक से अधिक पत्नियां रखने की परम्परा भी वहां नहीं मिलती। पति के मरने के बाद पत्नी दूसरा विवाह कर लेती थी। अमुमन देवर के साथ ही नाता होता। कभी-कभी पति के बड़े भाई के साथ टैग की भांति स्त्री चस्पा कर दी जाती। हां! वहां भी स्त्री इतनी तो स्वतंत्र नहीं थी जितना पुरुष, मगर वह एक व्यक्ति के रूप् में अपने को पहचानती थी।
सामंतकाल तक आते-आते ग्रामीण संस्कृति को सामंती परम्पराओं ने घेर लिया। अब स्त्री न सिर्फ दोयम दर्जे पर चली गई, बल्कि अब तो वह मात्र वस्तु के रूप में पहचानी जाने लगी। कृषक वर्गा की बेटी पर अब खतरा मंडराने लगा और खतरा था सामंती लोलुपता का। रजवाड़ों के हरमखानों में भरी हुई हजारों स्त्रियों का सा नारकीय जीवन कब किस लड़की के हिस्से में आ जाए, कुछ पता नहीं। इस संकट से निपटने के लिए सबसे पहले जवान होती बच्ची को शादी की ओर धकेला गया तथा फिर उसे पर्दे के भीतर रखा गया। चारदीवारी में बंद किया गया। सुरक्षित तो वह अब भी नहीं थी, क्योंकि सामंती रईसों की पहुंच हर जगह थी। 
काश! स्त्री को डरने के बजाय तब लड़ना सिखाया गया होता तो वह अपनी अस्मिता बचा पाती। उस समय अंधेरी खोहों में बंद की गई स्त्री आज भी खौफजदा है। सामंती संस्कार समाज की जड़ों तक समा गए हैं। आज का ग्रामीण परिवेश इन्हीं सामंती संस्कारों से घिरा हुआ है।
राजस्थान में स्त्री शिक्षा के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं। रोजगार के लिए स्त्री घर से बाहर भी निकल रही है। वह खुले सिर सड़कों पर चलती हुई नजर आ रही है, मगर कितनी प्रतिशत महिलाएं बाहर निकल पाई हैं। हालांकि मां-बाप का रवैया बदला है और लड़की को पढ़ाने के लिए होने वाली आनाकानी कम हो रही है। परंतु अंकुश अब भी है..... भले ही विषय चयन का हो या फिर स्कूल, काॅलेज चयन का। हां, कभी-कभी तो अध्ययन के बीच में ही शादी का संकट भी सामने आ खड़ा होता है। और यहां आकर अध्ययन की निरंतरता पूर्ण रूप् से ससुराल पक्ष के खाते में चली जाती है। उनकी जो इच्छा होती है, वही निर्णय मान्यता प्राप्त होता है।
कई बार तो दृश्य बड़े अजीब बन पड़ते हैं। घर वाले चाहते हैं कि हमारी बहू पढ़े। लेकिन परम्पराओं को भी निभाए। वह स्कूल या काॅलेज की और निकलती है। यूनिफाॅर्म की पल्ला उसके कंधों के बजाय सिर पर होता है और लम्बा-सा घुंघट ताने वह स्कूल-काॅलेज के दरवाजे तक जाती है। छुट्टी होने के बाद उसी प्रक्रिया को दोहराया जाता है। छह घंटे अपने सहपाठियों के साथ खुले सिर पढ़ने वाली वह लड़की स्कूल-काॅलेज के दरवाजे पर आते ही वह घूंघट के साथ फिर बहू बन जाती है।
घर आकर सास के हुकम का पालन शुरू हो जाता है और घर के सारे काम निपटाने का जिम्मा भारी बन जाता है। वैवाहिक दायित्व के बीच पति भी कहीं आड़े आता है तो दूसरी तरफ उसका परिवार भी। जिसे वह नजरअंदाज नहीं करना चाहती। एक तरफ कैरियर तो दूसरी तरफ परिवार -इस संघर्ष की चक्की में पिसती हुई वह कहां तक की यात्रा कर पाएगी?
सिर्फ पढ़ने वाली लड़की ही नहीं, कामकाजी महिला को भी इन्हीं स्थितियों में जीना पड़ता है। लम्बा-सा घूंघट डाले वह घर से बाहर निकलती है। यदि उसका कोई सहकर्मी उसके ससुराल का है, या फिर उसका कार्यस्थल ससुराल या आसपास है, तो फिर पूरे दिन साड़ी का पल्लू बड़े ही करीने से सिर पर सजाए रखना होता है। स्कूल, बैंक, डाकघर या फिर अन्य कार्यालयों में कितनी ही बार घरेलू स्त्री की तरह, साड़ी के पल्लू के साथ मशक्कत करती हुई कर्मचारी महिला देखी जा सकती है। बार-बार उस पल्लू को सहेजना शारीरिक कष्ट नहीं परंतु मानसिक रूप से बहुत दुखदायी होता है। उसकी मानसिक ऊर्जा का निकास अपने स्वतंत्र सहकर्मी से कहीं अधिक होता है।
जब शिक्षा से जुड़ी या कामकाजी स्त्री की यह स्थिति है, तब खेतों में काम करने वाली स्त्री की स्थिति क्या होगी? राजस्थान की साठ प्रतिशत स्त्री कृषि व्यवसाय से जुड़ी है, उसके मात्र हाथ ही पर्दे से बाहर रहते हैं। संयुक्त परिवार में तो स्थिति और भी जटिल बन जाती है। वहां ससुर और जेठ, दो रिश्ते ऐसे हैं, जो बोलने पर भी पाबंदी लगाते हैं। नई बहू को तो पूरा दिन बिना बोले ही बिता देना पड़ता है। यदि किसी काम के लिए पूछना भी हो तो वह फूसफूसा कर ही पूछ पाती है। हंसना तो मानो वह भूल ही जाती है।
उस पर्दे में वह न तो दुनिया देख पाती है और न ही दुनिया उसे देख पाती है। एक अनजान दुनिया में वह अनजान बनकर जीना सीख जाती है। यदि उसे यह घूंघट नहीं तानना पड़े तो कार्य करने की क्षमता भी बढ़ सकती है और जीने की लालसा भी। कई बार इस घंूघट के चक्र में परिवार को नुकसान भी उठाने पड़ते हैं। यदि बूढ़ा ससुर एवं बहू घर पर अकेले हैं तो वह बहू उस जर्जर व्यक्ति को न ही तो कुछ पूछ पाएगी और न नही बता पाएगी। ससुर यदि अंतिम सांसे भी गिन रहा है तो वह पास जाकर देख नहीं पाएगी कि क्या हो रहा है, स्थिति कैसी है। यहां यह कुछ प्रतिशत के अपवाद को छोड़कर बात की जा रही है।
ऐसी बात नहीं कि इस प्रभा को तोड़ने के प्रयास नहीं किए जाते। नई-नई शादी किए हुए पति-पत्नी इस प्रथा का विरोध करते हैं, मगर परिवार एवं समाज उनके विरोध में उतर आते हैं। इस संघर्ष में कुछ ही दम्पत्ति डटे रह पाते हैं और अपना मुकाम हासिल कर पाते हैं। बाकी दम्पत्ति व्यवस्था के आगे घुटने टेक देते हैं और सुनहरे भविष्य को इस पर्दे रूपी अंधेरी कोठरी में बंद कर देते हैं। कुछ दम्पत्ति इस संघर्ष की जद में नहीं आना चाहते और गांव से शहर की तरफ पलायन कर जाते हैं। 
परंतु, शहर में खुला जीवन जीने वाली वह स्त्री जब छुईमुई बन जाती है, तब शहर में ससुराल पक्ष को कोई व्यक्ति आ पहुंचता है। जैसे वह स्त्री न हुई कोई हाडमांस की पुतली हुई।
काश! यहा ग्राम्य वधु भी अपनी खुली आंखों से दुनिया को देख पाती। इस व्यवस्था से सवाल कर पाती। उसका ससुर कभी तो उसे बेटी कह कर सिर पर हाथ रख पाता। सुख-दुख की बातें करता। बहू बेटी बनती और ससुर बाप! 
कुछ भी हो, व्यवस्था की अंधी गलियों में स्त्री का जीवन खो गया है। व्यवस्था की इन कमजोर कडि़यों को तोड़कर फेंकना होगा, संस्कृति की सुंदर लडि़यों से इसे फिर से गूंथना होगा। स्त्री को जागना पड़ेगा तभी वह पर्दे से बाहर आएगी।
क्या बेहतर नहीं होगा कि पुरुष उसके इस संघर्ष को कुछ कम करे!

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