ओ राधा तेरी चुनरी........

गर्भनाल, मासिक, मार्च—2013



सामयिक मुद्दा

 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


पिछले दिनों फिल्म के एक गाने पर हिन्दुत्व के रखवालों ने बवाल खड़ा किया। गाना था- ‘ओ राधा तेरी चुनरी.....।’ पूरा गाना सुनने और देखने के बाद मुझे इसमें कहीं कुछ गलत नजर नहीं आया। धर्म-दण्ड-धारियों का कहना था कि इस गाने में हमारी आराध्य देवी का अपमान किया गया है। हर एक अखबार, हर एक इलेक्ट्रोनिक चैनल ने इस मुद्दे को बहस काबिल समझा। बहस के लिए कुछेक व्यक्तियों को चुना गया जिसमें फिल्म उद्योग, सामाजिक क्षेत्र, राजनीतिक दल और हिन्दू धर्म के रखवाले कई महात्माजी शामिल थे। 
मुद्दे पर बहस के समय वाजिब है कि पक्ष-विपक्ष में तकरार होती है। तर्क भी आते हैं और कुतर्क भी। मगर लगातार आश्चर्य तो तब हुआ जब भगवा वेशधारी और माथे पर भारी-भरकम सा टीका लगाए इन महात्माओं ने जोर देकर कहा कि राधा का नाम एक बाजारू औरत के साथ जोड़कर फिल्म इंडस्ट्री ने हिन्दू धर्मावलम्बियों की भावनाओं को ठेस पहुचाने का कार्य किया है। 
यहां सबसे पहल सवाल तो बीच बहस में यही उभरता है कि इन महात्माओं ने बाजारू किसे कहा? या तो उस लड़की को जिसने कहानी के पात्र का चरित्र निभाया या फिर उस कहानी के पात्र को, जो युवा मन की उड़ानों के बीच भविष्य के सपने देख रही थी? एक आम हिन्दुस्तानी परिवार की बेटी, जो जीवन की जद्दोजहद के बीच से अरमानों की राह खोज रही थी।
दूसरा सवाल जो मानस-पटल पर दस्तक देता है वह यह कि इन महात्माओं ने बाजारू कहा भी तो यह बाजार निर्मित किसने किया? इस बाजार में कौन बैठता है? यहां खरीद-फरोख्त कौन करता है? जब इस बाजार में खरीदने और बेचने वाला पाक है तो फिर बिकने वाले को क्यों गरियाया जाता है? बिकने वाली से किसी ने पूछा कि तुम बिकना चाहती भी हो या नहीं? इस बाजार में तो सदियों से पता नहीं कितनी ही राधा, सीता, द्रोपदी, माधवी बिकती आई हैं। परंतु यह भी सत्य है कि ये तो शीतल लौ हैं, जो दूसरों के लिए जलना जानती हैं। जिस दिन इन्होंने अपने लिए जलना सीख लिया उस दिन तुम्हारे बाजार और तुम सभी सूनी पड़ी गलियों से खिसकोगे।
ये हिन्दू धर्म के मठाधीश बड़ी-बड़ी बातें बोलते वक्त यह भूल जाते हैं कि सबसे अधिक राधाएं तो मंदिर-मठों के तहखानों में दम तोड़ती हैं। उनकी चीखें मंदिरों के प्राचीरों को चीरती हुई रात्रि के अंधेरे में कहीं गुम हो जाती हैं। दिन के उजाले में लम्बा-सा तिलक लगाए बैठे पंडित ने रात्रि के अंधकार में किसके जीवन को लील लिया, कोई नहीं जानता। कौन जानता है कि पाखण्डियों के जाल में फंसी हुई कितनी ही भोली किशोरियों का जीवन काली स्याही से पोत दिया जाता है। कितनी ही विधवाओं का जीवन धर्मस्थलों पर दम तोड़ देता है। दिन में भगवान की सेवा करने वाली ये दासियां रात्रि में धर्मधारी मुस्टण्डों के हवस की शिकार बनती हैं। दिन में ये नापाक विधवाएं पंडों के लिए अछूत होती हैं और रात्रि मंे भोग का निर्जीव साधन। जब ये धर्म के रखवाले बोलते ही हैं तो इन मुद्दों पर क्यों नहीं बोलते? मानव जाति को कलंकित कर देने वाले इन मुद्दों पर जब ये लोग नहीं बोल सकते तब फिर जनता के बीच जाकर उनके आनंद के क्षणों को छीनने का अधिकार इनको किसने सौंपा?
क्या सिर्फ आप हिन्दू हैं? जिन लाखों परिवारों में इस गाने को बड़े ही आनंद के साथ सुना गया और उल्लास से झूमा गया, तब क्या वे हिन्दू नहीं? क्या हिन्दू धर्म पर आपका कब्जा है? क्या हिन्दू देवी-देवताओं के नामों पर आपने काॅपीराइट ले रखा है? जिन हिन्दुओं को इस गाने से कोई शिकायत नहीं, न ही राधा के नाम का प्रयोग करने से कोई शिकवा, तो क्या आप उन्हें हिन्दू नहीं मानते? क्या हिन्दू होने का प्रमाण पत्र आपसे लेना होगा?
हिन्दू धर्म अनुयाइयों की भावनाओं को ठेस तो ये मठाधीश पहुंचाते हैं। वे क्यों एक आम व्यक्ति को कुंद करना चाहते हैं? यह मत करो, वह मत करो। यह धर्म विरुद्ध है, यह धर्म के लिए अनिवार्य है! धर्म के बाहर सोचोगे तो तुम नापाक हो जाओगे। क्यों ऐसे नियम धर्म के नाम पर लादते हैं, जिससे व्यक्ति स्वतः ही धर्म विरोधी होने को मजबूर हो जाए? क्यों एक आम आदमी की स्वछंदता पर रोक लगाने के दुष्चक्र कर रहे हैं?
पौराणिक कहानियों के सभी पात्रों को सारे हिन्दू सिर्फ देवता ही मानें, यह जरूरी तो नहीं। मैं व्यक्तिशः राधा और कृष्ण को एक पौराणिक उपन्यास का पात्र मानती हूं। क्या मैं हिन्दू नहीं हूं? क्या आप रोक सकते हैं, मुझे हिन्दू होने से? क्या इस गाने को फिल्माने वाली पूरी टीम को आप हिन्दू धर्म से बाहर कर सकते हैं? इस गाने और फिल्म को देखने वाले और आनंदित होने वाले हजारों-लाखों की संख्या में उमड़े दर्शकों को क्या आप सजा देने वाले हैं? दे सकते हैं?
जब सिनेमा के पर्दे पर राधा नाचती है तब तो आपको बड़ी दिक्कत होती है, मगर भागवत कथा के नाम पर इकट्ठी हुई भीड़ में जब राधाएं ठुमके लगाती हैं, तब आप बड़े हर्षित होते हैं। आप भी इन राधाओं के साथ झूम उठते हैं और कहते हो, देखो! हमारी राधाएं नाच रही हैं, अपने कान्हा के लिए। कहां राधा है और कहां कान्हा, यह तो आप भी जानते हैं और भोली जनता भी। मगर क्या करे यह जनता? सदियों से भ्रमित हुई राहें इतनी जल्दी पाखंडों के जाल से नहीं छूट सकेंगी।
गाने की राधा ने अच्छे-से अंगिया-चोली और बड़ी-सी चुनरी पहन रखी है। उसको देखकर कहीं-किसी के मन में गलत विचार नहीं आ सकते और किसी के मन में आते भी हैं तो यह उस मन का खोट है, गाने के दृश्य का नहीं। अपने-आप को राधा का भक्त मानने वाले पाखण्डियों से तो गाने की वह पात्र अच्छी है, कम से कम राधा को सरे आम नंगा तो नहीं करती। अपने-आप को भक्त कहने वाले इन रसिकों ने राधा को अभिसार के लिए निकली हुई नायिका से अधिक कभी कुछ नहीं माना। राधा को तो कृष्ण की केलि के लिए निर्मित किया है आप लोगों ने। जब एक गृहस्थ स्त्री को अपने पति और बच्चों को छोड़कर कृष्ण की बांसुरी पर उन्मुक्त होकर जंगल की तरफ जाने के लिए विवश करते हैं तब आप नहीं सोचते कि राधा के साथ यह न्याय है या फिर अन्याय? आपके बताए हुए इसी रास्ते पर जब एक आम स्त्री या पुरुष चलने की कोशिश करता है तब आप बौखला उठते हैं। धर्म की दुहाई देते हैं। समाज के नियम याद दिलाते हैं। आपकी इस दोगली नीति के कारण इस हिन्दू संस्कृति पर फिर से विचार करने के लिए लोग विवश होते हैं। भगवा वस्त्र पहनकर, माथे पर बड़ा-सा तिलक लगाकर बड़े-बड़े प्रवचन देना आसान है, मगर गृहस्थ धर्म निभाना इतना आसान नहीं। फिल्म इंडस्ट्री कितने लोगों को रोजगार से जोड़ती है, मंनोरंजन के साथ जनता को कितनी हकीकतों से रू-ब-रू करवाती है, यह भी यहां विचारणीय हो जाता है। हां, कहीं-कहीं कमी रह जाती है लेकिन वह अंतिम सत्य नहीं होता। 

हकीकत मंे राधा का अपमान तो धर्म के सौदागरों ने किया है। राधा एक सामान्य स्त्री थी, जिसने अपने जीवन में संघर्ष किया ओर उसी संघर्ष में जूझती को छोड़कर कृष्ण अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने मथुरा चला गया। वापस मुड़कर पूछा भी नहीं कि क्या तुम ऐसे हालातों में जी पाओगी? संघर्षों से मुक्ति तो उसने भी चाही होगी मगर नहीं तो तब और नहीं अब, उसे मुक्ति मिल सकी है। पत्थर में ढालकर, मंदिर में बैठाकर उसकी यातनाओं के सफर को हिन्दुत्ववादियों ने कभी खत्म नहीं होने दिया। अब वह राधा आपके इस पाखण्ड-जाल से मुक्ति चाहती है। उसे मत रोको। मुक्त कर दो। उन्मुक्त कर दो। वरना किसी दिन राधा संघर्षों से बाहर आकर आंख दिखाने लगेगी और ध्वजवाहक बने आप देखते रह जाओगे। बदलाव को स्वीकार करने का माद्दा पैदा करो, खुद में। समय की यही मांग है।







No comments:

Post a Comment