स्वयं प्रकाश की रचनाओं में लोककथात्मक शैली

‘मेरी प्रिय कथाएं’ के विशेष संदर्भ में

 @ Dr. Krishna Jakhar डॉ. कृष्णा जाखड़


बचपन में दादी-नानी से सुनी हुई कहानियों को सच मानता हुआ बच्चा स्वप्निल संसार में रंगीन पंखों से परवाज भरता है। उस संसार में पराक्रमी राजा और बुद्धिमती रानी, दुनिया की सबसे खूबसूरत राजकुमारी और बलवान राजकुमार होते हैं। खिले हुए फूल, मंडराते भंवरे और सुख-शांति का साम्राज्य इर्द-गिर्द होता है। दूर बियावान में रहने वाला राक्षस और पिंजरे के तोते में बसते उसके प्राण, यथार्थ लगता है। उन कहानियों में होते हैं चोर, डाकू और एक बड़ी-सी सेना। इन सबसे मौजूद रहती हैं दूर परी लोक में विचरण करती हुई परियां। इस काल्पनिक जगत में सैर-सपाटा करता बचपन जब किशोरावस्था की देहरी पर दस्तक देता है तब उसका जुगुप्सू मन इन कहानियों के मिथ्या तत्व को पहचानने लगता है। इन कहानियों के रोमानी संसार से निकलकर जब वह व्यवस्था के थपेड़ों में घिरता है तब उसके इर्द-गिर्द नई कहानियां होती हैं और उनके पात्र बदल से जाते हैं। किशोर का उलझा हुआ मन वहां उस नायक की खोज करता है, जो व्यवस्था की क्रूरताओं से निपट सके। मगर व्यवस्था का तानाबाना अपने-आप में ही इतना जटिल एवं उलझा हुआ सामने होता है कि रास्ता बनाना मुश्किल-सा लगता है। 
कैशोर्य को लांघने वाला युवा मन, जो आंतरिक एवं बाह्य द्वंद्व से घिरा हुआ होता है, वह एक सहज-सीधा रास्ता खोजना चाहता है, जहां उसके भटकाव को भी ठिकाना मिल जाए और व्यवस्था का यथार्थ भी समझ में आ जाए। वह युवा मन अगर साहित्य जगत में उतरता है तो वहां प्रेमचंद, भीष्म साहनी, अमरकांत जैसे कथाकारों को चयन करता है, क्योंकि वहां कथा का बहाव बड़ा सहज है। वहां व्यवस्था पर गहरा प्रहार भी है तो किस्सागोह का रसास्वाद भी। 
स्वयं प्रकाश की कथाओं में भी यही किस्सागो प्रवृत्ति है और जो पाठक को सहज ही अपनी तरफ खींच लाती है। व्यवस्थाओं पर प्रहार करती स्वयं प्रकाश की कलम जहां आंतरिक हलचल पैदा करती हुई ज्वार लाने में सक्षम हैं, वहीं उबलते मन और अंतद्वंद्व झेलते मस्तिष्क को भाटे के मानिंद शांति भी प्रदान करती हैं। उल्लेखनीय यहां स्वयं प्रकाश के बारे में यह हो जाता है कि उनकी इस विविधता में भी सहजता और सरलता मौजूद रहती है। स्वयं प्रकाश की कहन सहजता के बारे में कैलास बनवासी लिखते हैं- ‘‘स्वयं प्रकाश को पढ़ते हुए आप बहुत जल्दी उनके बारे में राय बना सकते हैं। उनकी कहानियों में कहीं कोई गढ़ी हुई रहस्यमयता, जटिलता या अनावश्यक गंभीर उलझाऊ वाक्य नहीं मिलेंगे। उनमें एक सरलता है, सादगी है, जोश है, मस्ती है, छेड़खानी है और मनभावन बदमाशियां हैं- एकदम प्राकृतिक, किसी नदी के समान। उनकी ये प्रवृत्तियां चीन्ह लेने के लिए पाठक को साहित्य का गहरा जानकार होने की कतई जरूरत नहीं।’’ 
इस सरलता और तरलता के बहाव में जब स्वयं प्रकाश का कहानी संग्रह ‘मेरी प्रिय कथाएं’ हाथ में आता है तो पठनीयता और मुखरित होती है। यहां आकर स्वयं प्रकाश की कलम लोक के मानिंद उत्साहित और रसीली हो जाती है, वहीं गंभीरता भी अख्तियार किए रहती हैं। इस संग्रह में कथाकार स्वयं प्रकाश ने लोककथा शैली का प्रयोग किया है। कथ्य की जटिलता इन कथाओं से गायब है। इन कथाओं के पात्र सार्वभौमिक और सार्वकालिक बनते चलते हैं। पाठक को यहां आकर लगता है कि उसके अंदर बचपन में सुनी हुई कथाएं जैसे जागृत हो उठी हैं, बस पात्र और परिस्थितियां बदल गई है। कथाओं की किस्सागोई और लोककथात्मक शैली के कारण पाठक को लगता है कि वह कथा पढ़ नहीं रहा, सुन रहा है। स्वयं प्रकाश खुद भी इस बात को स्वीकार करते हैं- ‘‘तो बहुत मोहब्बत के साथ पाठकों के समक्ष अपने समय की आधुनिक लोककथाओं की एक बानगी हाजिर करता हूं।’’  
चिर-परिचित लोककथा शैली- एक था राजा, खापरिया चोर या एक थी बुढि़या.....। इसी शैली से इस कथा संग्रह की सभी कथाएं शुरू होती हैं। जो इन कथाओं को स्थान-विशेष से निकाल कर निर्पेक्ष बना देती हैं। ज्वलंत मुद्दे पर लिखी हुई कथा भी सार्वदेशिक और सार्वकालिक बन जाती है। संग्रह में मौजूद ‘जंगल में दाह’ कथा में जंगल पर अतिक्रमण और आदिवासियों की संस्कृति एवं संस्कारों की क्षति को महसूस किया जा सकता है। इस कथा का मुख्य पात्र ‘मामा सोन’ सम्पूर्ण आदिवासी संस्कृति का प्रतीक है। किसी देश या क्षेत्र विशेष का आदिवासी ही नहीं, पूरे विश्व में फैली आदिम संस्कृति को बचाए रखने वाले इस समुदाय के लुप्त होते आवास और जीवनरक्षक साधनों के विनाश को बयां करती यह कथा विकासशील सभ्यता की बर्बरता का सामने लाती है। कथा का कथ्य वर्तमान परिस्थितियों का उठाता है मगर पढ़ते वक्त ऐसा महसूस होता भी होता है कि यह प्राचीन समय की कथा है, जिसको सदियों से बच्चे सुनते आ रहे हैं और मानो इस कथा की लय में जंगल की समस्त हलचल उनकी आंखों के आगे नाचने लगती है। इस कथा के अंतिम पड़ाव पर आते हैं तो लगता है लोककथा शैली पूरे शबाब पर आ खड़ी होती है- ‘‘लेकिन कमीने जाते-जाते जंगल में आग लगा गये।/ वन के पशु-पक्षी और वनवासी राजा की फौज से तो टक्कर ले सकते थे, लेकिन अग्नि देवता के आगे उनका कोई बस नहीं चल पाता था।/अफसोस कि न मामा सोन को बचाया जा सका न उनकी धनुर्विधा को। जो वहां बचा वह बस राख ही राख थी। राजकुमार का महल भी जलकर राख हो गया था। राजा और उसके वफादार सैनिक भी।/कहने वालों ने कहा कि बरसात के बाद वहां वन्य वनस्पति और ज्यादा लहलहाकर फूटेगी। कहने वालों ने यह भी कहा कि वनवासियों के बीच में से ही एक दिन फिर कोई मामा सोन जन्म लेगा।/ऐसा हुआ या नहीं, पता नहीं।’’  
यहां आकर पाठक इस कथा के आगे की परिकल्पना करने को विवश हो उठता है। वह सोचता है कि जंगल फिर से हरा-भरा होगा या नहीं। वह चिंतित होता है कि क्या फिर से ‘मामा सोन’ जन्म लेगा तथा तीर-कमान चलाना सिखाएगा। वह नतीजा निकालता है कि वनवासी संस्कृति फिर से विकसित होगी तथा वन्यप्राणी निर्भय विचरण करेंगे।
पाठक का पुष्पक विमान जब स्वयं प्रकाश के कथा-जगत मंे उड़ता हुआ ‘कानदांव’ कथा के दरवाजे आता है तब वह ऐसे भारत में पहुंच जाता है जहां दोस्ती और दुश्मनी तथा छल एवं कपट होते हुए भी मानवता जिंदा है। उसके मन और बुद्धि दोनों दैहिक पलायन करके सामाजिक समरसता में गोते लगाने लगते हैं। साम्प्रदायिकता रूपी ज्वाला की लपटों में झुलसते हुए समाज के अंदर स्थापित पाठक बनिए और पठान की दोस्ती एवं खेल-खेल में होते समझौते का दृश्यावलोकन कर एकबारगी मानो उसी दुनिया में चला जाता है। इस कथा के संवाद तो पाठक को पुरखों के वार्तालाप कौशल तक पहुंचा देते हैं- ‘‘ये भी कोई पूछन की बात है? -पठान तुनककर बोला।/मुझे तो नहीं लगता कि तू कुश्ती लड़ना जानता है।/कैसे नहीं जानता?/जानता है तो बता तुझे कौन-कौन-से दांव आते हैं?/पठान को जितने दांव आते थे, सब उसने गिना दिए, लंगी, घिस्सा, गरदनिया, कलाई तोड़, धोबीपाट, रानबंदी और भी कितने ही बनिया आंख मूंदे सुनता रहा। फिर बोला- और?/और क्या?/और नहीं आता? ये तो मुझे भी आते हैं।/पठान क्या बोलता? और तो उसे कोई दांव नहीं आता था। दिमाग पर जोर डाला। पर कुछ सुझा ही नहीं।/तब बनिया बोला, मुझे एक दांव और आता है।/कौन-सा?/कानदांव, तुझे आता है?/कानदांव? ये क्या होता है?’’ 
कथा ‘उज्ज्वल भविष्य’ बड़े-बड़े बिजनस ग्रुप के मालिकों की दोगली नीति और बेरोजगार युवा के भटकाव एवं टूटते आदर्शों की जीवंत दस्तावेज है। दिखावे की सभी झालरों के बीच से झलकती हुई बेईमानी की हकीकत और अपने अंदर बसाई हुई ईमानदारी को त्यागने का मानस बनाता व्यक्ति इस कथा को संजीदा कर देता है। एक बेहद गंभीर मुद्दे को लेकर चली कथा ‘प्रतीक्षा’ में पूंजीवादी-युगीन बुद्धिजीवी की स्थिति और आम-आदमी का सनातन सत्य व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। कथान्तर्गत सेम्युअल बेकेट का नाटक ‘वेटिंग फाॅर गोडो’ का मंचन किया जाता है। इस नाटक का एक पात्र एस्ट्रागाॅन, सबको झकझोर कर रख देता है। तृतीय विश्वयुद्ध के समय का यह पात्र आज भी उसी स्थिति में है, यह पात्र आम-आदमी का प्रतीक है। यह होनी-अनहोनी सभी का भोक्ता हैै, जो बेकेट के समय में भी व्यवस्था की मार झेल रहा था और आज भी झेल रहा है लेकिन फिर भी जी रहा है। इस कथ्य के निचोड़ को कथा के अंतिम पड़ाव पर महसूस किया जा सकता है- ‘‘सेम्युअल बेकेट एक घुटना मोड़े सिर झुकाए बैठे थे। बेहद उदास। धूसर। ध्वस्त। निरर्थकता बोध से लथपथ। आधी सदी पहले मैंने जो लिखा, कम्बख्त अभी तक असंगत-अप्रासंगिक नहीं हुआ! विज्ञान!! प्रगति!!! करोड़ों लोग तो आज भी गोडो की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं! गोडो- जिसे आज तक किसी ने नहीं देखा! एक ऐसी सड़क पर जो कहीं नहीं जाती! और एक ऐसे पेड़ के नीचे जो कभी नहीं फलता, उल्टे सूखता जाता है!/....और नौजवान लड़के-लड़की!!’’ 
इतने जटिल विषय को लोककथात्मक शैली में कहने के कारण ही पाठक इतनी आसानी से इसे आत्मसात कर पाया है। सदियों के अंतराल के बाद क्या-कुछ बदला है और क्या-कुछ जस का तस है, यह बताना इतना आसान नहीं होता। मगर कथा कहने की इस सरल शैली के कारण ‘वेटिंग फाॅर गोडो’ जैसे क्लिष्ट नाटक का कथ्य भी बोधगम्य बन गया। यह स्वयं प्रकाश की कारीगरी के कारण संभव होता है।
‘बिछुड़ने से पहले’ एक ऐसी कथा है जिसमें बाहरी बदलाव तो दिखाई देते हैं मगर स्थितियां जस की तस बनी हुई हैं। कच्ची पगडंडियों की जगह अब सड़क बनने लगी है और उनके आस-पास भी बहुत-कुछ बदलने लगा है मगर इन सुविधाओं के साथ ही बहुत-सी मुसीबते भी आती जा रही हैं।
एक कथा हम सभी बचपन से सुनते आ रहे हैं कि शिव और पार्वती दोनों धरती पर परिभ्रमण करते रहते हैं। वे जायजा लेते रहते हैं कि कहीं कोई दुखी तो नहीं है। यदि कोई समस्या में होता है तो पार्वती उसकी समस्या का समाधान करने हेतु शिव से आग्रह करती है। इसी किस्सागोई को माध्यम बनाकर स्वयं प्रकाश द्वारा लिखी गई कथा ‘गौरी का गुस्सा’ है। इसमें रतनलाल अशांत नामक पात्र के माध्यम से अनायास ही मिली सुविधाओं का उपभोग कर भी संतुष्ट न हो पाने का दर्द है तो वहीं उसमें और अधिक पाने की लालसा का बखान किया गया है। हम उसी सुविधा का समुचित उपभोग कर सकते हैं, जिसको हमने काफी मेहनत से जोड़ा है। उसी को पाकर संतुष्ट होते हैं। व्यवस्था की चक्की में पिसता हुआ तथा अपने जाल में फंसता हुआ आदमी समस्त दोष परिस्थितियों के मत्थे मंढ़कर खुद अपना पल्ला झाड़ना चाहता है मगर अधिक पाने की चाह फिर भी उसका पीछा नहीं छोड़ती। जैसा भी है, उसमें व्यक्ति संतुष्ट नहीं और दान में मिली सुविधा को भोग नहीं सकता। इसीलिए वह और अधिक विचलित है। 

समय के साथ जो व्यक्ति स्वयं को बदल नहीं पाता वह सभी काम कर लेने की क्षमता रखने के बावजूद भी खुश नहीं रह पाता। ‘मंजू फालतू’ कहानी में इसी पीड़ा को व्यक्त किया गया है। मंजू जमाने से दो कदम आगे चलने वाली लड़की है, जिसके हौंसले बुलंद और कार्यशैली चुस्त। जिसने खुद अपने जीवन को संवारा और एक अदद मुकाम हासिल किया। मगर उस सक्षम लड़की को भी शादी के बाद सोचना पड़ा- ‘‘बड़े-बड़े सपने न वहां थे न यहां हैं। उसके जैसी लड़की गरम दाल-भात या आरामदेह चप्पल जैसी चीज के आगे क्या सपने देखे? लेकिन नितिन का घर? तो क्या यह उसका घर नहीं? यह घर उसने नहीं बनाया। रेडीमेड कपड़े या खाने जैसा है। उसे मिल गया है। फिट भी नहीं है। कहीं से ढीला है कहीं फंसता है। अल्टर करने का टाइम भी नहीं है। करेगी कभी टाइम मिला तो।’’  शादी के बाद बच्चे और फिर गृहस्थी की जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेही में अपने ही द्वारा हासिल मुकाम का त्याग।
मंजू नौकरी छोड़ने के बाद घर में रह रही है। बाहर की दुनिया बड़ी तेजी से बदलती जा रही है। तकनीक के पीछे भागता इंसान खुद के जीवन को पीछे छोड़ता जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय पहचान की अंधी दौड़ में उलझा व्यक्ति घर-परिवार की उपेक्षा करता जा रहा है। इसी वजह से वह उन रिश्तों के प्रति फिर से सोचने हेतु बाध्य हो जाती है, जिन रिश्तों के अबाध निर्वाह निमित्त कभी उसने सारी खुशियां तजी थी- ‘‘कोई अपना नहीं होता। न घर, न पति, न बच्चे। अंत में अपनी अकल और अपने हाथ-पैर ही काम में आते हैं।’’ 
अब मंजू घर में फालतू होती जा रही थी। अब उसकी जरूरत न दोनों बेटियों की थी और न ही पति को। वे सभी अपनी दुनिया में व्यस्त थे। मंजू अपने-आप को फिर से अद्यतन करने लग गई। वह बाहर जाती, नई तकनीक के साथ माथा-पच्ची करती, नौकरी के लिए आवेदन करती परंतु बावजूद सबकुछ, उसके संस्कार पीछा करते रहते। मानसिक द्वंद्व उसे बेचैन रखता- ‘‘मंजू को लगा वह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही है। समय उसके पक्ष में नहीं है। उम्र शत्रु बन गयी है। उसका दिल बुझने लगा। डिप्रेशन रहने लगा। वह इतनी जल्दी बूढ़ी और कमजोर और पराश्रित नहीं होना चाहती थी, उसे निकम्मा और निठल्ला होकर जीना मंजूर नहीं था। वह अपने ही घर में अपने ही पति और बच्चों की उपेक्षा और दया और उपहास की पात्र नहीं बनना चाहती थी। वह चीजें रखकर भूलने लगी। सनकने लगी। घुटने लगी। टूटने लगी।’’ 
इस कथा की नायिका मंजू का दर्द एक अकेले व्यक्ति का दर्द नहीं है। इसमें पिछले 25-30 वर्ष का बदला हुआ इतिहास है। इन वर्षों में तकनीक ने इतनी उन्नति की है कि आज का बच्चा सहजता से यह मान ही नहीं पाता कि 25 वर्ष पहले बिजली, फोन, टीवी, कम्प्यूटर आदि तकनीक-सुविधाओं के अभाव में भी व्यक्ति जीवित था। खास बात है कि इस कथा में कहीं भटकाव नहीं है। इतनी सहजता से कथा-नद में बहता हुआ मन किनारे पर आ जाता है कि पता ही नहीं चलता। मगर किनारे पर बैठकर वह सोचने को मजबूर हो जाता है कि मंजू का क्या आगे हुआ होगा। वह अपने आसपास मंजू का अस्तित्व खोजने की कोशिश करता है। कथा एक दिशा में चलती है, इसलिए पाठक कथा को पूरी करने के बाद भी कुछ दूर उसी लय में चलता जाता है। यहीं आकर लेखन की सार्थकता सिद्ध होती है।
‘नाचने वाली कहानी’ यह एक दिलस्प दास्तान है। जैसलमेर का नाचना शहर और स्थानीय लोगों के विशेष उच्चारण के कारण दिल्ली से आया गुप्तचर अधिकारी नाचना नाम के चक्कर में उलझा रहता है। इस संग्रह की ‘हत्या-1’ तथा ‘हत्या-2’ दोनों ही कथाओं में बच्चों की इच्छाओं, उनके मीठे सपनों, उनकी स्वछंदता, उत्सुकता और सर्वग्राह्य मानसिकता पर लगी पाबंदी को समेटा गया है। पहली कथा में सर्कस देखने की उत्सुकता और सर्कस से लौटने पश्चात के मनोविज्ञान को समझा जा सकता है। पिंजरे में बंद शेर को देखकर बच्चों के मन में शेर की आजादी को खत्म करने का दुख हमला करता है। बच्चों के मन में दहाड़ें भरता जंगल का शेर मौजूद रहता है परंतु सर्कस में जब वे लोहे के जंगल में बंधा हुआ शेर देखते हैं तो मानो उनके अंदर अवस्थित शेर मर-सा जाता है।
संग्रह की एक कथा है- ‘बाबूलाल तेली’। सामान्य सामाजिक-व्यक्ति अपने जैसे ही किसी दूसरे व्यक्ति पर होते अत्याचार को देखकर तिलमिलाता है मगर कुछ कर नहीं पाता और जाति जैस बंधनों  के आगे घुटने टेक देता है। इस कथा में बाबूलाल एक सामान्य इंसान है। वह किसी जाति-मजहब की पाबंदियों में घुटना नहीं चाहता मगर तेली समाज उसे बलि का बकरा बना ही देता है।
इस संग्रह की अंतिम और लम्बी कहानी ‘बलि’ चिरपरिचित लोककथा अंदाज से शुरू होती है- ‘‘घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गांव था। साल, शीशम, आम, कटहल और महुए के पेड़। ये बड़े-बड़े पेड़। पेड़ के नीचे खड़े होकर एकदम ऊपर देखो तो सूरज न दिखाई दे। चारों तरफ धान के खेत, छोटे-बड़े पोखर और कुछ दूर इच्छा नदी। लकड़ी-मिट्टी-घास-गोबर के मकान और केले के पेड़, लौकी-कद्दू की बेलें और बैंगन-टमाटर की बाड़ी। हाथ-हाथ भर के काले बिच्छू और चार-चार गज के जहरीले सांप। पोखर मे कूदती-फांदती मछलियां और चूल्हे पर चढ़ी काली हांडी में खदबदाता भात।’’  
फिर गांव में बदलाव शुरू होते हैं। दबे पांव शहर गांव में आने लगता है। जमीन, फल, सब्जी, अनाज, दूध सभी अच्छी चीजों पर साहब लोगों का कब्जा होता जाता है। गांव में भूख पसरने लगती है। पैसे हैं मगर स्वछंदता खत्म होती जा रही है। छोटे-छोटे बच्चे साहबों के घर मजदूरी पर जाने लगे हैं। उनके पिता शराब के नशे में पड़े रहते हैं और मां पूरे दिन खटने के बाद भात की व्यवस्था बैठाती हैं। इन्हीं घरों में से निकलकर एक लड़की साहब के यहां नौकरी करती है। जमीन कारखाने के भेंट चढ़ गई, मुआवजा भी नहीं मिला और ऊपर से घर की खस्ता हालत। जो भी कुछ पास था वह कोर्ट-कचहरी के चक्कर में खत्म हो गया। लड़की सोचती है कि ये लोग बाहर से आए, उसके गांव को लील लिया और उन्हीं को मूर्ख समझते हैं। उसने निणर्य लिया- ‘‘वह इसी मामी के यहां काम करेगी। लेकिन दिखा देगी कि जो-जो और जैसे-जैसे मामी खुद करती है और दूसरी मामियां करती हैं.....वह भी कर सकती है। बल्कि उनसे भी अच्छा। घर में जितने भी काम होते हैं- खाना पकाना, सीना-पिरोना, काढ़ना-बुनना, बोलना-चालना, लिखना-पढ़ना....वह सब सीखेगी... इन्हीं से सीखेगी और एक दिन इन्हीं से अच्छा करके दिखा देगी। हरदम हंसती रहेगी। कभी किसी बात की खुद से भी शिकायत नहीं करेगी। हंसी ओर सेवभाव यही उसके हथियार होंगे। और जिस दिन मामी मान जाएगी कि ये जंगली लोग भी उनसे किसी बात में कम नहीं, बस मौका मिलने की बात है....और जिस दिन मनुष्य की तरह व्यवहार करने लगेगी, जंगली लोगों से बराबरी का बरताव वह उसे उसके हाल पर छोड़कर अपनी दुनिया में वापस आ जाएगी। एक उन्मुक्त और उत्फुल्ल प्राकृतिक दुनिया जिसका रूप, रस, गंध और स्पर्श मामी जैसों के नसीब में ही नहीं है।’’  
मगर लड़की का यह गुस्सा अधिक दिन नहीं रह सका। वह उन लोगों के साथ रहकर अपने भूत को भूलती जा रही थी और उसे लगता कि वह जिन लोगों से नफरती करती थी, अब उन्हीें लोगों के साथ जीने की आदी हो गई। अब वह चाहकर भी इरादे पर कायम नहीं रह पा रही थी- ‘‘लड़की को बहुत असहायता का अनुभव हुआ। उसे लगा, जैसे अब वह तैर नहीं रही है, सिर्फ बह रही है। बहना आसान है, तैरना कठिन.... लेकिन तैरने वाले को पता होता है कि उसे कहां जाना है अथवा कहीं नहीं जाना है। बहने वाले के हाथ में कुछ नहीं होता।’’  मगर यह बहता हुआ जीवन लम्बा रास्ता तय नहीं कर पाया। एक बार फिर से इस रास्ते में मोड़ आ गया। लड़की फिर से वापस अपने गांव-घर में लौट आई। अपने गांव की स्त्री की सामान्य स्त्री की भांति जीवन जीने को मजबूर हो गई। गृहस्थी की चक्की में पिसते हुए एक दिन खुद के जीवन को खत्म कर लिया। दुनिया उसे भूला देती है मगर यहां आकर पाठक को वह हर जगह नजर आने लगती है। अपने इर्द-गिर्द संघर्ष करती वह लड़की या यूं कहें कि एक व्यक्ति रोज टूटता है, मरता है, जिसे पाठक महसूस करने लगता है। स्वयं प्रकाश की यह कथा ‘झिंटिए’ की बात की भांति है जो किसी एक जगह या देश की नहीं बल्कि अनेक रूपों में सर्वत्र मौजूद होती है, भले ही स्वयं प्रकाश की पात्र लड़की का रूप बदल जाए। सिमटते हुए गांव, फैलते शहर और संक्रमित होती संस्कृति, उखड़ते हुए लोग स्वयं प्रकाश की कथाओं को जींवत बनाते हैं।
‘मेरी प्रिय कथाएं’ संग्रह की रचनाओं की भाषा और शाब्दिक शक्ति गजब की है। पढ़ते समय पाठक कहीं भी असहज महसूस नहीं होता। लय में चलते हुए शब्दों के अर्थ सहज ही समझ में आ जाते हैं। जिस प्रकार कथावाचक के सामने बैठा श्रोता मानसिक रूप से स्थान विशेष से ऊपर उठकर कथा-जगत में विचरण करने निकल जाता है, उसी प्रकार स्वयं प्रकाश की इन कथाओं को पढ़ता हुआ पाठक भी अशरीरी हो जाता है। 
स्वयं प्रकाश के अनुसार उन्होंने लोककथाओं का निर्माण किया है। वे इस कार्य में सफल भी हुए हैं मगर कुछेक जगह इस बात की कमी भी महसूस होती है। लोककथा में जो तारतम्यता और एकरसता होती है, वह यहां कहीं-कहीं टूटती महसूस होती है। मगर इन कथाओं को पढ़कर आनंदानुभूति होती है तथा साथ सामयिक तथ्यों का खुलासा भी होता है और यही चीज वर्तमान स्थितियों में साहित्य रचाव के लिए जरूरी है। 
तकनीकी युग में नई लोककथाएं भी चाहिए तो नया कलेवर भी। पात्र और कथातत्व दोनों ही समय के अनुसार होने की वजह से ‘मेरी प्रिय कथाएं’ संग्रह की कथाएं अधिक सार्थक बन पड़ी हैं। प्रूफ की कुछ कमिया कथा संग्रह में अखरती है खासकर प्रत्येक पृष्ठ पर दिया गया पुस्तक शीर्षक का गलत प्रयोग। परंतु यह कमी स्वयं प्रकाश की नहीं मानी जानी चाहिए। 
‘मेरी प्रिय कथाएं’ जैसे नायाब संग्रह को पढ़ते हुए पाठक निश्चित रूप से लोककथात्मक शैली को स्वयं के अंदर विकसित करता चलता है और उसका हृद्य लोक में आलोडित होता रहता है। संग्रह की रचनाएं लोककथात्मक शैली का नायाब उदाहरण मानी जा सकती हैं।

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