प्रभा खेतान की कविता : स्त्री की पुकार


प्रभा खेतान के गद्य साहित्य पर जितनी अधिक चर्चा हुई है उतनी पद्य साहित्य पर नहीं। प्रभा खेतान का लिखना कविता से शुरू हुआ और उल्लेखनीय है कि उनके कविता संग्रह बेहतर भी हैं। उनके कुछ कविता संग्रह विषय चुनाव एवं विमर्श की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। प्रभा की कविता नारी अस्मिता के लिए नींव का पत्थर साबित होती हैं। नारी का सशक्त रूप उनके पूरे साहित्य में मौजूद है। 
प्रभा की नारी अपने अस्तित्व के लिए लड़ती नजर आती है। पितृसत्ता को ललकारती हुई वह अपनी जड़ता को तोड़ती है। प्रभा खेतान के ‘कृष्णधर्मा मैं’ तथा ‘अहल्या’ दोनों कविता संग्रह नारी विमर्श की दृष्टि से हिंदी साहित्य की थाती हैं। 
जिस स्थावर व्यवस्था ने सदियों से स्त्री को जकड़े रखा है, उस व्यवस्था की प्राणहन्ता बेड़ियों को तोड़ने के प्रयास ‘कृष्णधर्मा मैं’ की स्त्री करती है। इस कविता में स्त्री पुरुष के व्यक्ति रूप को स्वीकारती है तो स्वयं के व्यक्ति रूप को भी स्थापित करती है। वह अपनी सृजन शक्ति को पहचानती है- ‘‘अपनी पहचान/मैं स्वयं हूं/अपना आंतर/अपने एकल को पहचानती हूं मैं।’’ 
सृष्टि का निर्माण तो स्त्री-पुरुष मिलकर करते हैं। फिर स्त्री को इतिहास की अंधेरी खोहों में क्यों धकेल दिया जाता है? पितृसत्ता के मक्कड़जाल ने स्त्री के अवदान को क्यों नकारा? व्यवस्था ने प्रखर बुद्धि से भयभीत होकर ज्ञान के कपाट क्यों बंद कर दिए? वह जानती है पुरुष अकेला ही इतिहास के पन्नों में दर्ज है। परंतु वह यहां तक कैसे पहुंचा, यह भी जानती है। इतिहास के इन रक्त-रंजित अध्यायों में स्त्री की ही बलि दी गई है। पितृसत्ता की कंदराओं से बाहर आती हुई स्त्री सवाल करती है- ‘‘इतिहास तो हमारे साझे का जगत है कृष्ण/मैं तुमसे अलग कहां?’’ 
समाज के ताने-बाने ने कितने ही रूपों में स्त्री को छला है। कितने ही आवरणों से घेर रखा है। ‘कृष्ण धर्मा मैं’ की स्त्री अपने वजूद को पहचानती है- ‘‘स्वीकारती हूं/आज अपने होने का सच/अंधेरे जगत में जैसी भी हूं/धूप की चाह के साथ हूं प्रभु!/निरावरण है यह अस्तित्व/मुखौटों के व्यामोह से मुक्त।’’ 
प्रभा खेतान की स्त्री अधिक संवेदनशील है। वह मिट्टी का लोंदा नहीं, जैसे चाहा उस आकार में ढाल दिया। वह अपने आत्म को पहचानती है- ‘‘क्या करूं अपने इस अहंकार का?/क्या करूं अपनी इस आत्मनिष्ठा का?/कहां विसर्जित कर दूं/तुम्हारी रची इस व्यवस्था में/बार-बार सिर उठाते/पहचान बनाने के लिए/आकुल अहं को?’’  स्त्री की ऐसी सभी इच्छाओं पर पहरा बैठाया जाएगा। उसे समझाया जाएगा। तुम बेटी हो, बहन हो, पत्नी हो, मां हो, तुम्हारे लिए ऐसी इच्छाएं उचित नहीं। तुम ऐसी कामनाएं करोगी तो हमारी संस्कृति का क्या होगा? समाज का क्या होगा? हमारे बच्चों को संस्कारित कौन करेगा? लेकिन प्रभा खेतान की स्त्री के पास इन सवालों का जवाब है। वह झुकने वाली नहीं- ‘‘न वरण करूंगी दैन्य/न वरण करूंगी पलायन/पहुंचना है मुझे भी/तुम्हारी ऊंचाइयों तक/चूमना है मुझे भी तुम्हारे धर्म का शिखर।’’ 
‘अहल्या’ में प्रभा खेतान ने युग-युग से जड़वत बनी स्त्री को जगाने का प्रयास किया है। बचपन से एक कहानी सुनते आए हैं- गौत्तम ऋषि की पत्नी थी अहल्या। ऋषि ने शाप देकर अपनी ही पत्नी को पत्थर बना दिया। और फिर आए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, जिनकी ठोकर से अहल्या जीवित हो उठी। इस कहानी की परछाई में जब प्रभा खेतान की ‘अहल्या’ सामने आती है तो एक कुचक्र पाठक के समझ में आता है- ‘‘भोक्ता इंद्र/विधायक गौत्तम/मुक्ति-दाता राम।’’ 
स्त्री कब तक फंसी रहेगी इस मायावी जाल में? कब तक निर्भर करेगी उधार मिले जीवन पर? उसे अपना उद्धारक खुद बनना होगा। अपने रास्ते स्वयं ही निर्मित करने होंगे। पितृसत्ता के बीहड़ों से निकलकर नई बस्तियों का निर्माण करना होगा। समता के बीज बोने होंगे। प्यार के पुष्प खिलाने होंगे। इस कलंकित इतिहास को पुनर्सृजित करना होगा। इसीलिए प्रभा खेतान का आत्म पत्थर हुई स्त्री को पुकारता है- ‘‘उठो! मेरे साथ/मेरी बहन!/छोड़ दो/किसी और से मिली मुक्ति का मोह!/तोड़ दो शापग्रस्तता की कारा/तुम अपना उत्तर स्वयं हो अहल्या!/ग्रहण करो,/वरण की स्वतंत्रता।’’ 
ऐसा ही नहीं कि स्त्री को एक बार हाथ-पैर मारते ही उसे हक मिल जाएं। उसे संघर्षों के दरिया से गुजरना होगा। ठोकरें लगेगीं। बार-बार गिरकर भी उठना होगा। विश्वास से लबरेज होकर चलना होगा। स्त्री के आत्मविश्वास को जगाती प्रभा खेतान- ‘‘इतना तो मानोगी, अहल्या!/निःशेष नहीं होती सम्भावना/ऊसर में भी/बीज उग आने की/फिर क्यों/मौन तुम हो गई/आत्मलीन?’’ 
पुराना सबकुछ भूलकर वर्तमान को भोगने के पक्ष में प्रभा खेतान की स्त्री नहीं है। वह इन यंत्रणाओं को याद रखना चाहती है। प्रभा खेतान घबराई हुई त्रस्त स्त्री को सांत्वना देती है। कहती हैं कि उठो, मैं तुम्हारे साथ हूं। अतीत से निकलकर वर्तमान को पुकारो- ‘‘मैं आई हूं तुम्हारे/पथराए होंठों को आवाज देने/तुम्हारे पास/डाल देने अपना लंगर/खोल दो, चट्टानों की शिरा-शिरा/आवाज दो,/यंत्रणा-दग्ध यादों को!’’ 
स्त्री ने मौन रहकर सब सहा। आज भी वह एक हद तक मौन ही है। दस प्रतिशत जागरूकता को हम जगना नहीं कह सकते। यदि वह बोलेगी, सवाल करेगी तो व्यवस्था का ध्यान जरूर जाएगा। यदि अहल्या उस समय सवाल करती कि मेरा कसूर क्या है, तो शायद गौत्तम सोचने पर विवश होता। मगर अहल्या हो या माधवी या फिर सीता, सबने मौन साध लिया और उसका परिणाम- पत्थर में ढलती हुई स्त्री। पुरुष की उस नियती को चुपचाप धारण करने वाली स्त्री से प्रभा खेतान सवाल करती है- ‘‘ओ, प्रकृति के नैरंतर्य की/आत्र्त पुकार, अहल्या!/अंतहीन तुम्हारी करुणा/वत्सला तुम/जननी! शाश्वत प्रसविनी!!/गर्भ में भ्रूण का यों/पथरा जाना/कैसे सहा तुमने?’’ 
‘अहल्या’ की कवयित्री का हृदय उद्वेलित हो उठता है। वह स्त्री की अंतहीन यातनाओं से रूबरू होना चाहती है। स्त्री के रक्तरंजित हृदय की धमनियों से दुःख गाथा सुनना चाहती है। इतना ही नहीं, कवयित्री इन सबके बीच स्त्री को अपनी स्थितिग्रस्तता से बाहर निकलने के लिए आह्वान करती है। ‘कृष्ण धर्मा मैं’ की स्त्री के स्वर में भी नाद है। पीड़ा के बीच विद्रोह के स्वर हैं।
प्रभा खेतान की स्त्री करवट बदलती दिखाई दे रही है। उसकी मांसपेशियों में जमा हुआ पानी लालिमायुक्त बनने लगा है। वह अपनी जमीन को टटोल रही है। आगे बढ़ने के नए मार्ग खोज रही है। उसे विश्वास है कि नई सदी का सूर्य उसके लिए नई रोशनी लाएगा। तभी तो वह आत्मविश्वास से लबरेज होकर अहल्या से कहती है- ‘‘अब/जब तुम/आंख खोलोगी अहल्या!/सच मानो, मेरी बहन!/उसी वक्त खुलकर/खिलने लगेगीं/नई संस्कृति की पंखुड़ियां।’’  

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